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भारत के राष्ट्रपति ने मानवाधिकार दिवस समारोह को संबोधित किया; उन्होंने कहा कि जमीनी स्तर पर मानवाधिकार का प्रभावी सुदृढ़ीकरण, पूरे समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है

राष्ट्रपति भवन : 10.12.2019

भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द ने कहा कि जमीनी स्तर पर मानव अधिकारों का प्रभावी सुदृढ़ीकरण, पूरे समाज का सामूहिक जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस संबंध में, जागरूकता फैलाने और इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सिविल सोसायटी के साथ मिलकर अच्छा काम किया है। राष्ट्रपति आज (10 दिसंबर, 2019) नई दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा आयोजित ‘मानवाधिकार दिवस समारोह’ में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।

मानवाधिकार और स्त्री-पुरूष समानता के क्षेत्र में हंसाबेन मेहता के योगदान को याद करते हुए, राष्ट्रपति ने कहा कि हमें स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या, एक समाज के रूप में, हम, महिलाओं के लिए समान अधिकारों और उनकी समान गरिमा की हंसाबेन की सोच पर खरे उतरे हैं? दुर्भाग्य से, हाल के दिनों घटी अनेक घटनाओं से हमें इन बातों पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। देश के कई हिस्सों में महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों की घटनाएं सुनने को मिली हैं। ये घटनाएं किसी एक स्थान या किसी एक राष्ट्र तक सीमित नहीं हैं। दुनिया के कई हिस्सों में, कमजोर लोगों के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया ज ाता है। इसलिए, पूरे विश्व के लिए मानवाधिकार दिवस मनाने का आदर्श तरीका यह होगा कि हम सब आत्म-चिन्तन करें और यह देखें कि घोषणा के पवित्र पाठ को अक्षरशः आत्मसात करने के लिए और क्या कुछ करने की आवश्यकता हमें है।

राष्ट्रपति ने कहा कि इस तरह के आत्म-चिन्तन के साथ, हमें इस घोषणा-पत्र की पुनः व्याख्या करने और मानवाधिकारों की धारणा का विस्तार करने का काम भी करना चाहिए। हमें लोगों के प्रति सहानुभूति की और उनकी मुसीबतों को समझने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, हमें बाल मजदूरों और बंधुआ मजदूरों की समस्याओं को समझने या जेलों में बंद ऐसे लोगों की दुर्दशा पर विचार करने की जरुरत है जो छोटे-मोटे अपराध के मुकद्दमें में सुनवाई की प्रतीक्षा करते रहते हैं जो उन्होंने शायद किया भी न हो। मानवाधिकार चार्टर की भावना के अनुरूप समाज के निर्माण के लिए हम सबको इन मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

राष्ट्रपति ने कहा कि यह आत्म-मंथन वास्तव में अति आवश्यक है। लेकिन यदि हम इस मुद्दे के दूसरे पक्ष अर्थात् अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं, तो स्थिति के बारे में हमारी समझ अधूरी होगी। गांधीजी, अधिकारों और कर्तव्यों को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देखते थे। महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा जैसे मामलों में, मानवाधिकारों के क्षेत्र में हमारी विफलता, प्रायः दूसरे क्षेत्र में घटित हमारी विफलताओं से उपजती है। यह ठीक ही है कि राष्ट्रीय स्तर पर हमारे सरोकारों में मानवाधिकारों के महत्वपूर्ण सवाल पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इससे, यह गुंजाइश बन सकती है कि हम मौलिक कर्तव्यों पर भी विचार कर सकें।