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भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द गीताप्रेस के शताब्दी वर्ष समारोह में सम्बोधन

गोरखपुर :04.06.2022

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आज आप सब के बीच उपस्थित हो कर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं गीताप्रेस के शताब्दी वर्ष समारोह में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त कर पाया हूँ। इस शुभ अवसर पर गीताप्रेस से जुड़े सभी लोगों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

देवियो और सज्जनो,

भारत का इतिहास प्राचीन काल से ही अध्यात्म एवं धर्म से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्राटों ने प्रायः अपने अनुशासन में धर्म का भी पालन किया है। इसका प्रमाण उनकी नीतियों में निहित है। धर्म और अनुशासन के समागम से हमारी भारतीय संस्कृति का अद्वितीय और अनुपम स्वरुप उभरा है।इस अनुपम संस्कृति को संपूर्ण विश्व में सराहा गया है। यह हम सब के लिए गर्व की बात है कि भारत की संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा हज़ारों वर्षों से अविरल चलती आ रही है और भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है।

मैं इस बात की सराहना करता हूँ कि भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान को जन-जन तक ले जाने में गीताप्रेस ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अपने प्रकाशन के माध्यम से गीताप्रेस ने हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक प्रसंगों को जनमानस तक पहुंचाया है।

मुझे बताया गया है कि गीताप्रेस की स्थापना के पीछे मंशा थी गीता का प्रचार-प्रसार और जन-जन में भगवत प्रेम जागृत करना। इस कार्य को प्रारम्भ करने का श्रेय श्री जयदयाल गोयन्दका जी को जाता है। श्री जयदयाल गोयन्दका जी 'सेठजी' के नाम से लोकप्रिय थे। मुझे बताया गया है कि यह उपनाम उनको सम्बोधन हेतु स्वामी श्री रामसुखदास जी ने दिया था जो उनके सभी अनुयायियों में प्रचलित हो गया।

देवियो और सज्जनो,

भगवद्गीता में एक श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसका मैं इस सभा में उल्लेख करना चाहूँगा:

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेषु-अभिधास्यति।

भक्तिम् मयि परां कृत्वा मामेव-एषति-असंशयः।।

अर्थात अत्यंत भक्ति से जो व्यक्ति इस परम गोपनीय संवाद-गीता-ग्रन्थ को मेरे भक्तों से कहेगा, वह मुझे ही प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

इसी श्लोक में आगे की पंक्तियों में यह भी स्पष्ट लिखा है कि ऐसे व्यक्ति से न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।

संभवतः इसी श्लोक के प्रेरणास्वरुप, सेठजी ने कोलकाता में अपने कार्य के साथ ही सत्संग करना प्रारम्भ किया। इन सत्संगसभाओंमें गीता पाठ किया जाता था। उनकी यह सत्संग सभा क्रमशः लोकप्रिय होती गयी और सत्संगों में सम्मिलित व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगी। सभी साधकों को स्वाध्याय हेतु गीता ग्रन्थ की आवश्यकता थी। परन्तु गीता की पुस्तक जो शुद्ध रूप और सही अर्थ से युक्त हो और सस्ती भी हो, उस समय सुलभता से उपलब्ध नहीं थी।

यह प्रायः देखा गया है कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है। और यह पुनः सिद्ध हुआ जब भगवद्गीता को शुद्ध रूप में प्राप्त करने की इच्छा और सामान्य जनता को उपलब्ध कराने की भावना ही, गीताप्रेस की स्थापना का कारण बनी। तदोपरान्त श्री घनश्यामदासजी जालान तथा श्री महावीर प्रसादजी पोद्दार जी ने गोरखपुर में इस प्रेस को स्थापित करने का प्रस्ताव रखा जिसे सेठजी ने स्वीकृति दी। 1923 में गीताप्रेस की स्थापना हुई जिसने धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तक के प्रेक्षण के कार्य में एक नया इतिहास रचा है।

जिस जगह की नींव का उद्देश्य भगवत प्रेम और कथा का प्रचार और प्रसार हो,उसका नाम गीताप्रेस रखना स्वाभाविक है। इस प्रेस कामुख्य उद्देश्य है ईश्वर प्रेम, सत्य, सदाचार और सदभावों के प्रचार हेतु मानव सेवार्थ सद्ग्रन्थों इत्यादि का प्रकाशन करना है।यह प्रेस भगवद्गीता के अतिरिक्त रामायण,पुराण,उपनिषद,भक्त-चरित्र इत्यादि पुस्तकें प्रकाशित करता है। यह हम सब के लिए अत्यंत गर्व की बात है कि कोलकाता से शुरू की गयी यह छोटी पहल अब सम्पूर्ण भारत में अपने कार्य के लिए सुप्रसिद्ध है।

मुझे बताया गया है कि अपनी स्थापना से लेकर मार्च, 2022तक की अवधि में,गीता प्रेस से भगवद्गीता के विभिन्न संस्करणों की1621 लाख प्रतिलिपियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त यदि हम रामचरितमानस, उपनिषद आदि पुस्तकों को सम्मिलित करें,तो गीताप्रेस अब तक 70 करोड़ से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित कर के एक कीर्तिमान स्थापित किया है।गीता प्रेस को हिंदू धार्मिक पुस्तकों का विश्व का सबसे बड़ा प्रकाशक होने का गौरव प्राप्त है। आर्थिक संकटों के दौर से उबरते हुए, गीता प्रेस ने अद्वितीय प्रतिष्ठा उपलब्धि प्राप्त की है जिसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।कठिन दौर में भी जनमानस को सस्ते दाम पर धार्मिक पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए मैं गीताप्रेस को साधुवाद देता हूँ।

इसके अतिरिक्त गीताप्रेस पत्रिका ‘कल्याण’के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।कल्याण का प्रकाशन1926 से लगातार हो रहा है। इस पत्रिका के आद्य संपादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे।आध्यात्मिक दृष्टि से, कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। कल्याण पत्रिका संभवतः गीताप्रेस के सबसे प्रसिद्ध प्रकाशनों में से एक है। यह भारत में अब तक सबसे व्यापक रूप से पढ़ीजाने वाली धार्मिक पत्रिका भी है।

कल्याण पत्रिका को भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी का लेख प्रकाशित करने का भी सौभाग्य प्राप्त है। अपने प्रथम अंक में प्रकाशित इस लेख में गांधीजी ने लिखा था कि मनुष्य का धर्म है‘ईश्वर के निकट ले जाने वाली सर्व शक्तियों का विकास करना और तमाम प्रतिकूल शक्तियों का त्याग कर देना, यही उसका दोहरा धर्म है’। गीताप्रेस अपनी पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से इसी लक्ष्य को जन सामान्य तक पहुंचाने हेतु निरंतर प्रयासरत है। उनके इस प्रयास के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

देवियो और सज्जनो,

एक बात का मैं विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। गीताप्रेस के लगभग 1850 वर्तमान प्रकाशनों में,करीब760 प्रकाशन संस्कृत एवं हिंदी के हैं। परन्तु शेष प्रकाशन अन्य भाषाओं में हैं जिन में गुजराती, मराठी,तेलुगु, बांग्ला, उड़िया, तमिल, कन्नड, असमिया, मलयालम, नेपाली, उर्दू, पंजाबी एवं अंग्रेजी शामिल हैं।

इस बात से एक और पहलू उजागर होता है और वह है हमारी भारतीय संस्कृति का अनेकता में एकता का सिद्धांत। भारतीय संस्कृति में धार्मिक एवं आध्यात्मिक आधार पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक ही है। यदि रामायण हिंदी में लोकप्रिय है,तो तमिल और गुजराती में भी उतनी ही प्रसिद्ध एवं मान्य है। सामासिक संस्कृति का इससे बेहतर उदाहरण मिलना कठिन होगा जहाँ एक ही कथा एवं विचारधारा अनेक भाषाओं में उपलब्ध हो और मान्य भी हो।

इसी प्रकार गीताप्रेस परिसर का मुख्य द्वार भी हमारे देश की विभिन्नता और एकता को दर्शाता है। यह द्वार भारत की विभिन्न कलाओं एवं शैलियों का समागम है। कला के अतिरिक्त,इस द्वार में भारतीय संस्कृति एवं धर्म की गौरवमयी गाथा भी निहित है। इस द्वार का उद्घाटन सन1955 में,भारत के प्रथम राष्ट्रपति और मेरे पूर्ववर्ती डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी ने किया था। हमारी संस्कृति का प्रतीक यह द्वार एक दर्शनीय स्थल भी बन गया है।

एक और बात जिसका मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा और वह है कि गीताप्रेस ने अपनी शाखाएं अब भारत की सीमाओं के बाहर भी स्थापित कर रहा है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में गीताप्रेस ने अपनी शाखा आरम्भ करके अपनी पहुँच को एक नयी दिशा दी है। मुझे बताया गया है कि विश्व के अनेक देशों में गीताप्रेस की पुस्तकें एवं प्रकाशन अत्यंत लोकप्रिय हैं। मैं आशा करता हूँ कि गीताप्रेस की शाखाएं विश्व के अन्य प्रमुख देशों में भी स्थापित होंगी और पूरा विश्व भारत की संस्कृति और दर्शन से लाभान्वित होगा।

देवियो और सज्जनो,

मैं जब भी राजकीय दौरे पर विदेश जाता हूँ,मुझे भारतीय मूल के लोग जिन्हें हम इंडियन डायस्पोरा कहते हैं,हर देश में मिलते हैं। उनसे मिलकर मुझे उसी आत्मीयता की अनुभूति होती है जो मुझे अपने देश में अपने देशवासियों से मिलकर होती है। विदेशों में बसे हुए हमारे भाई-बहन हमारी भारतीय संस्कृति के दूत हैं जो विश्व को हमारे देश से जोड़ते हैं।

हमारे ऐसे साथियों में भारतीयता को जागृत रखने के लिए गीताप्रेस की पुस्तकें अत्यंत लाभदायक हो सकती हैं। मैं गीताप्रेस के कार्यकारिणी समिति से आग्रह करूँगा कि वे अब विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों से अपने सम्बन्ध एवं सरोकार बढ़ाएं और अपने संस्थान का विस्तार करें।

अंत में, एक बार फिर,मैं गीताप्रेस के शताब्दी वर्ष के आरम्भ होने की आप सब को हार्दिक बधाई देता हूँ और इस संस्था के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

धन्यवाद,

जय हिन्द!