भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का श्रीरामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह में सम्बोधन
हैदराबाद: 13.02.2022
जय श्रीमन् नारायण!
श्रीमते नारायणाय नमः!
श्रीमते रामानुजाय नमः!
भारत के गौरवशाली इतिहास में, भक्ति और समता के सबसे महान ध्वज-वाहक, भगवद् रामानुजाचार्य की सहस्राब्दी समारोह के शुभ अवसर पर, मैं सभी देशवासियों, विशेषकर श्रीरामानुज के श्रद्धालुओं को हार्दिक बधाई देता हूं। इस समारोह में भाग लेना तथा भगवद् रामानुजाचार्य की स्वर्णिम प्रतिमा का अनावरण करना मेरे लिए परम सौभाग्य का विषय है। विगत 5 फरवरी को वसंत-पंचमी के शुभ अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने श्रीरामानुजाचार्य की भव्य समता मूर्ति का लोकार्पण किया। मेरी मान्यता है कि श्रीरामानुज स्वामीजी की प्रतिमा से पवित्र इस क्षेत्र में 1035 कुण्डों के श्रीलक्ष्मी-नारायण महायज्ञ तथा 108 मंदिरों की प्राण-प्रतिष्ठा से, एक विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा का सदैव संचार होता रहेगा। एक दैवी संयोग से इस क्षेत्र का नाम भी श्रीरामनगर है। यह कहा जा सकता है कि यह स्थल भक्ति-भूमि है, समता-भूमि है, विशिष्टा-द्वैत दर्शन की भूमि है तथा यह भारत की संस्कार-भूमि है।
इस क्षेत्र में स्थापित भारत के नवीनतम राज्य तेलंगाना में श्रेष्ठतम सांस्कृतिक उपलब्धियां देखी जा सकती हैं। गोदावरी नदी के आशीर्वाद से सिंचित तेलंगाना की प्रत्येक यात्रा मेरे लिए विशेष महत्व रखती है।
लेकिन आज की इस यात्रा के दौरान मुझे देश कीआध्यात्मिक व सामाजिक परंपरा के एक महान अध्याय से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ है।‘भूयश्च शरद: शतात्’ अर्थात सौ वर्ष से भी अधिक आयु तक सक्रिय रहने का शुभ-संकल्प श्रीरामानुज के जीवन में सार्थक हुआ। सौ वर्षों से भी अधिक लंबी अपनी जीवन-यात्रा के दौरान स्वामीजी ने भारत के आध्यात्मिक और सामाजिक स्वरूप को वैभव प्रदान किया। लोगों में भक्ति और समानता का संदेश प्रसारित करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य ने स्वयं श्रीरंगम, कांचीपुरम, तिरुपति, सिंहाचलम, आंध्र प्रदेश के अन्य क्षेत्रों, जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ, नैमिषारण्य, द्वारका, प्रयाग, मथुरा, अयोध्या, गया, पुष्कर और नेपाल में मुक्तिनाथ तक की यात्रा की।
Ladies and Gentlemen,
Sri Ramanuja’s ‘Vishishtadvaita’ is not only a singular contribution to philosophy, but he also showed the relevance of philosophy in day-to-day life. What is called philosophy in the West has been reduced to a subject of only scholarly study. But what we call ‘Darshan’ is not a matter of dry analysis; it is a way of looking at the world and also a way of life. That has always remained true in India, thanks to philosopher-saints like Sri Ramanujacharya.
देवियो और सज्जनो,
श्रीरामानुजाचार्य ने दक्षिण की समृद्ध भक्ति परंपरा को, विशेषकर आलवार संत कवियों की परंपरा को बौद्धिक आधार प्रदान किया। जैसा कि सर्वविदित है, अधिकांश आलवार संत पिछड़ी जातियों में जन्मे थे। श्रीरामानुजाचार्य ने तथाकथित अछूत जाति के तिरुप्पन आलवार जैसे संतों की रचनाओं को वैष्णवों के वेद के रूप में सम्मानित किया।
तथाकथित पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए वैष्णव धर्म के द्वार खोलने का कार्य श्रीरामानुजाचार्य ने ही किया। उन्होंने समझाया कि भक्ति सभी जाति-भेदों से ऊपर है और ईश्वर की आराधना का सबको समान अधिकार है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि ईश्वर की भक्ति के लिए किसी पुरोहित-वर्ग की भी जरूरत नहीं है। श्रीरामानुज स्वामी ने तत्कालीन समाज-व्यवस्था में समता का संचार किया। उन्होंने वेदान्त की बौद्धिकता में भक्ति के रस का मिश्रण किया। उन्होंने बुद्धि को हृदय से जोड़ा तथा अमूर्त को मूर्त से जोड़ा।उन्होंनेसब कुछ छोड़ कर ईश्वर की शरण में जाने की भावना को उत्पन्न करने की शिक्षा दी और इस भक्ति-भाव को‘प्रपत्ति’का नाम दिया। उन्होंने भक्ति द्वारा मुक्ति का मार्ग दिखाया।
Ladies and Gentlemen,
Saint-poets and philosophers like Sri Ramanujacharya have created and nurtured India's cultural identity, cultural continuity and cultural unity. They have built the concept of a nation based on cultural values. This culture-based concept of nation is different from how it is defined in the western thought. References to the Bhakti tradition that united India in a single-threadcenturiesago are found in the Puranas. This tradition can be seen in the form of the Bhakti sects inspired by Sri Ramanujacharya, which had spread from Srirangam and Kancheepuram in Tamil Nadu to Varanasi in Uttar Pradesh. Thus, the emotional unity of Indians is centuries old.
देवियो और सज्जनो,
भारत में भक्ति की धारा दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित हुई। इसके लिए उत्तर भारत के साधु-समाज ने श्रीरामानुजाचार्य जैसे दक्षिण भारत के संतों के प्रति सदैव कृतज्ञता व्यक्त की है। उत्तर भारत के भक्तों में एक दोहा प्रचलित है :
भक्ती द्राविड ऊपजी, लाए रामानन्द
परगट कियो कबीर ने, सात द्वीप नौ खण्ड।
अर्थात भक्ति की धारा दक्षिण के क्षेत्र में आलवार संतों और श्रीरामानुजाचार्य की परंपरा में उत्पन्न हुई। उसे स्वामी रामानन्द उत्तर भारत में ले आए। उनके शिष्य,संत कबीर ने जम्बू-द्वीप सहित सातों द्वीपों और भरत-खंड सहित सभी नौ खंडों में, अर्थात समस्त भारत वर्ष में भक्ति के प्रकाश को फैलाया।
स्वामी रामानन्द ने कबीर, रैदास, दादू दयाल और पीपा जैसे संतों को भक्ति का मार्ग दिखाया। स्वामी रामानन्द के वे सभी शिष्य तथाकथित पिछड़ी जातियों के थे। आज से सदियों पहले के इस उदाहरण में भारत कीसमतामूलक चेतना के तत्व विद्यमान हैं। इस प्रकार,श्रीरामानुजाचार्य के दर्शन पर आधारित भक्ति की धारा ने समता के आधार पर, समस्त भारत में समाज के सभी वर्गों को एक-दूसरे से जोड़ा।
हमारी परंपरा में समता के भाव को ही ज्ञान का मुख्य तत्व माना गया है। गीता के पांचवे अध्याय में कहा गया है:
पंडिता: सम-दर्शिन:
अर्थात जो व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी होते है वे सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखते है।
समदर्शी होना ही श्रीरामानुजाचार्य की सबसे बड़ी विशेषता थी।
देवियो और सज्जनो,
कल ही, मैं बाबासाहब डाक्टर भीमराव आंबेडकर के पैतृक गांव में गया था और आज मैं इस पवित्र समारोह में यहां उपस्थित हूं। बाबासाहब के परिवार ने कबीर-पंथ को अपनाया था। महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में बाबासाहब का वह छोटा सा गांव,आम्बडवे,और तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में स्थित यह स्थल, श्रीरामनगर,श्रीरामानुजाचार्य और संत कबीर की परम्पराओं से जुड़े हुए हैं। समता पर आधारित भक्ति के आदर्श का स्मरण कराने वाले ये दोनों स्थान मेरे लिए पवित्र तीर्थ स्थल ही हैं।
Ladies and Gentlemen,
Babasaheb Doctor Bhimrao Ambedkar, the main architect of our constitution, who stood for social justice, had clearly stated that the fundamental constitutional ideals of our modern republic are based on the cultural heritage of India. Babasaheb had also mentioned with great respect, the egalitarian ideals of Sri Ramanujacharya. Thus, our concept of equality is not derived from western countries. It has developed on the cultural soil of India. Our eternal vision of "VasudhaivaKutumbakam” is based on equality. Equality is the corner-stone of our democracy. Equality before law, prohibition of all forms of discrimination, equality of opportunity, abolition of untouchability - all these Fundamental Rights have been enshrined in our constitution. To achieve the constitutional objective of establishing an equitable society, many programs of public welfare are run by the government.
देवियो और सज्जनो,
समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु कार्य करना भी हमारे देश का प्रमुख जीवन-मूल्य रहा है। सबके हित का यही आदर्श श्रीरामानुजाचार्य के विशिष्टा-द्वैत पर आधारित भक्ति मार्ग में भी दिखाई देता है। इसकरुणा-युक्त भक्ति का प्रवाह देश के विभिन्न क्षेत्रों में पहुंचा। गुजरात में नरसी भगत ने इसी परंपरा के अनुसार भगवान विष्णु का वास्तविक भक्त उसे माना जो दूसरे के कष्ट को समझे तथा उनका दुख दूर करने में लगा रहे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी नरसी मेहता द्वारा दी गई वैष्णव-भक्त की इसी परिभाषा को अपनाया। आधुनिक युग में सनातन भारतीय जीवन-मूल्यों की स्थापना करने वाले गांधीजी पर भी श्रीरामानुजाचार्य का प्रभाव दिखाई देता है। गांधीजी ने सन 1923 में अपने कारावास के दौरान ‘रामानुज-चरित’ नामक पुस्तक का अध्ययन किया था।
श्रीरामानुजाचार्य के बाद की सहस्राब्दी में उनकी सोच से कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं रहा है। साथ ही समाज-सुधार एवं मानवता के कल्याण हेतु जो बदलाव हुए हैं, उनपर भी रामानुज स्वामीजी का प्रभाव दिखाई देता है। असम में श्री शंकरदेव से लेकर महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर तक, पंजाब में गुरु नानक से लेकर केरल में मेलपत्तूर नारायण भट्ट-तिरि तक– इन सभी विभूतियों पर श्रीरामानुजाचार्य का प्रभाव था। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है,"You may mark one characteristic since the time of Ramanuja – the opening of the door of spirituality to everyone. That has been the watchword of all the prophets succeeding Ramanuja.”
देवियो और सज्जनो,
श्रीरामानुजाचार्य जैसे संत युग-प्रवर्तक भी होते है और युग-द्रष्टा भी। आज हमारा संविधान हमारे देश की व्यवस्था का आधार है। सदियों पहले मंदिर और मठ, संस्कृति और कार्य-व्यवस्था केप्रमुख केंद्रहुआ करते थे। उस परिवेश में समानता की स्थापना करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य ने समाज के पिछड़े वर्गों को मंदिरों और मठों की व्यवस्था में सहभागीबनाया। इस प्रकार, हमारे संविधान के समता-मूलक आदर्श श्रीरामानुजाचार्य के विचारों और कार्य-प्रणाली में स्पष्ट दिखाई देते हैं।
जो संत बहुत महान होता है उसे भारत के लोग ईश्वर के समकक्ष रखना चाहते हैं। श्रीरामानुजाचार्य को‘इलाया पेरु-माल’ यानि‘परमेश्वर के अनुज’ अर्थात लक्ष्मण कहने के पीछे हमारे देशवासियों की यही भावना विद्यमान है। एक लोकप्रिय श्लोक में, अलग-अलग युगों में जन्म लेने वाले भगवान विष्णु के छोटे भाइयों का उल्लेख किया गया है। उस लोक-मान्यता के अनुसार सबसे पहले अनंतनाग यानि शेषनाग के रूप में, उसके बाद त्रेता युग में लक्ष्मण के रूप में,तत्पश्चात द्वापर युग में बलराम के रूप में, और अंत में कलियुग में मुनि रामानुज के रूप में भाई ने विष्णु रूपी भाई की सेवा की। यह लोक-मान्यता श्रीरामानुजाचार्य के अतुलनीय महत्व को रेखांकित करती है। तेलुगु भाषा में महानतम भक्ति-काव्य की रचना करने वाले श्रीरामानुजाचार्य संप्रदाय के संत-कवि श्री अन्नमाचार्य ने कहा था:
गतु-लन्नी, किल-मइन:,कलियुग-मंदुनु
गति-इतडे, चूपे, घन: गुरु-दइ-वमु।
अर्थात इस कलियुग में, जब मुक्ति के सभी मार्ग बंद हैं, तब ईश्वर की भांति श्रीरामानुजाचार्य, सभी प्राणियों को मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।
हमारी परंपरा में प्रेम और भक्ति को व्यक्त करने के लिए साकार प्रतिमा या मूर्ति को आधार बनाया जाता है। किसी स्वरूप के आलंबन के बिना भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। तिरुपति बालाजी तथा श्रीपद्मनाभ स्वामी के मंदिर में दर्शन करते समय जिस प्रकार की भक्ति भावना का अनुभव मैंने किया वह केवल चिंतन और कल्पना के आधार पर संभव नहीं है। वेद साहित्य में ऋषियों द्वारा देवताओं से की गयी यह प्रार्थना मिलती है:
अश्मा भवतु ते तनु:
अर्थात आपका शरीर दृश्यमान बने जिससे कि हम सहज भाव में आपका दर्शन कर सकें।
ईश्वरीय गुणों से युक्त विभूतियों को ठोस आकार में देखने की यह भावना ही श्रीरामानुजाचार्य की इस विशाल प्रतिमा के निर्माण की प्रेरणा रही है। इस दिव्य तथा भव्य समता मूर्ति के निर्माण के लिए तथा श्रीरामानुज शताब्दी समारोह के आयोजन के लिए मैं आदरणीय जीयर स्वामी जी तथा सभी आयोजकों की सराहना करता हूं।
यह भव्य एवं विशाल प्रतिमा, पंच-धातु से निर्मित एक मूर्ति मात्र नहीं है। यह प्रतिमा भारत की संत-परंपरा का मूर्तिमान स्वरूप है। यह प्रतिमा भारत के समतामूलक समाज के स्वप्न का मूर्तिमान स्वरूप है। यह प्रतिमा भारत की आध्यात्मिक महानता का मूर्तिमान स्वरूप है। यह प्रतिमा भारत के स्वर्णिम भविष्य का मूर्तिमान स्वरूप है।
Ladies and Gentlemen,
We have been celebrating the 75 years of Indian Independence. One of the objectives of ‘Azadi ka Amrit Mahotsav’ is to re-discover those values that inspired our freedom struggle. Then, the young generation would come to know the sources of the various movements led by Gandhiji, Babasaheb and others. Then they will realise how the founding fathers of our Republic connected us to our heritage as expressed in the life and work of Sri Ramanuja.
देवियो और सज्जनो,
वैष्णव परंपरा में लोक-संग्रह अर्थात सबके कल्याण के लिए कार्य करने को सर्वाधिकमहत्त्व दिया गया है। मैं चाहूंगा कि जिस निष्ठा के साथ आप सब ने इस मूर्ति का निर्माण किया है, उसी भावना के साथ आप सब नर-नारायण की सेवा तथा कल्याण हेतु देशव्यापी योजनाओं की परिकल्पना करें तथा उन योजनाओं को कार्यरूप प्रदान करें।
मुझे विश्वास है कि इस संस्था द्वारा लोक-कल्याण के प्रभावशाली कार्य किए जाएंगे। ऐसे प्रकल्पों से समता-मूलक समाज के निर्माण की दिशा में हमारे राष्ट्रीय प्रयासों को बल मिलेगा।
धन्यवाद,
जय हिन्द!