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‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन मैं भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्‍द का संबोधन

नई दिल्ली : 01.09.2018

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1. मुझे ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करने के लिए यहां उपस्थित होकर खुशी हुई है। विधिक समुदाय के और इस एसोसिएशन के पूर्व सदस्य के रूप में, यह मेरे लिए घर आने जैसा है। एडवोकेट्स-ऑन- रिकॉर्ड की एक गौरवशाली परंपरा रही है। उच्‍चतम न्यायालय के नियमों के अनुसार, ये अधिवक्‍ता ही किसी वादी की ओर से भारत के उच्चतम न्यायालय में विधिक कार्य करने और पक्षपोषण करने के लिए अधिकार प्राप्त पेशेवर हैं। यह विशिष्‍टता वे पेशेवर योग्यता से और एक परीक्षा उत्तीर्ण करके प्राप्त करते हैं। इस अर्थ में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन हमारे देश में न्याय हित में मदद की शानदार विरासत को आगे बढ़ा रही है।

2. इस सम्‍मेलन के दो विषय हैं। पहला,‘टेक्नोलॉजी, ट्रेनिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर: की टु स्पीडी जस्टिस’और दूसरा विषय ‘चेंजिंग फेस ऑफ लीगल एजुकेशन इन इंडिया’है। ये दोनों ही विषय अपने आप में और हमारे देशवासियों विशेषकर गरीब और मध्यम वर्ग तथा परंपरागत रूप से समाज के अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों कोत्वरित और कुशलविधिक सेवाएं,निर्णय और न्याय दिलाने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

3. पूरे विश्व में भारत की न्यायपालिका का सम्‍मान, निर्बल लोगों के लिए न्याय के संरक्षक के रूप में किया जाता है। यह भी सच है कि हमारे न्यायाधीशों पर अदालती मामलों का भारी बोझ है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारतीय विधिक प्रणाली में अति विलंब की समस्‍या दिखाई दे रही है। मेरी समझ से देश के विभिन्न न्यायालयों में 3.3 करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से 2.84 करोड़ मामले अधीनस्थ न्यायालयों में हैं। अन्य 43 लाख मामले उच्च न्‍यायालयों में और लगभग 58,000 उच्चतम न्यायालय में हैं।

4. इस विलंब के अनेक कारण हैं। विशेषकर अधीनस्थ न्यायालयों में बुनियादी ढांचा मजबूत नहीं है और बड़ी संख्या में पद रिक्‍त हैं। स्थगन की मांग अपवाद स्‍वरूप न कर के आदतन बहुधा की जाती है। बारम्‍बार स्थगन को लेकर धीरे-धीरे एक नई सोच बनने लगी है। मुझे बताया गया है कि न्यायपालिका इस परिपाटी की रोक-थाम का प्रयास कर रही है। मुझे विश्वास है कि समूचा विधिक समुदाय यह संकल्प लेगा कि जब तक बिल्कुल अपरिहार्य परिस्थितियां न हों, वह स्‍थगन की मांग नहीं करेगा।

5. यह देखा गया है कि विभिन्‍न सरकारें और सरकारी एजेंसियां स्‍वयं अनेक मुकदमों में पक्षकार हैं। मैं इस संख्या को कम करने के गंभीर प्रयास के लिए भारत सरकार की सराहना करता हूं। हाल के समय में अनेक उपचारी कदम उठाए गए हैं। उदाहरण के लिए सरकार ने विभिन्न अधिकरणों और न्यायालयों में कर-विवादों के मामले में अपील करने की सीमा बढ़ा दी है। उच्चतम न्यायालय में यह सीमा 25 लाख रुपये से बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गई है। सरकार ने बहुत सी लंबित अपीलों को वापस लेने का भी फैसला किया है।

6. सरकार ने वाणिज्यिक न्‍यायालयों, उच्‍च न्‍यायालयों के वाणिज्यिक प्रभाग और वाणिज्यिक अपीली प्रभाग अधिनियम, 2015 के अधिनियम को प्रयोगिक तौर पर आगे बढ़ाया है। इसका लक्ष्य विशेषकर ऊंची रकम वाले जटिल वाणिज्यिक विवादों का कुशल और न्यायपूर्ण निपटान करने का है। इससे कारोबार प्रक्रियाएं आसान होंगी। 2018 में इस अधिनियम में और संशोधन किए गए हैं। इनसे तीन लाख रुपये तक के विवादों में शामिल छोटे निवेशकों को लाभ होगा।

7. अधिकरणों का सोच-समझकर युक्तिकरण किया गया है। चिन्हित किए गए 36 अधिकरणों का आपस में विलय करके 18 अधिकरण गठित किए गए हैं। जिससे निर्णयों की परस्‍पर व्‍याप्ति पर रोक लगेगी तथा व्‍यक्ति पक्षकारों के लिए शीघ्र समाधान और न्याय सुनिश्चित करने में और अधिक स्‍पष्‍टता आएगी। ये सरकार द्वारा किए गए केवल कुछ ही उपाय हैं। ऐसे और भी बहुत से उपाय किए गए हैं।

8. प्रौद्योगिकी, न्याय दिलाने में बहुत सहायक हो सकती है।2016 में, हैदराबाद उच्च न्यायालय में भारत का पहला ई-न्यायालय खोलकर एक शुरुआत की गई थी। उसके बाद से ई-न्यायालय का विचार अन्‍यत्र भी फैल गया है। ऐसे ई-न्यायालयों की स्थापना के लिए केन्‍द्रीकृत इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग, दस्तावेजों का डिजिटलीकरण, प्रलेख प्रबंधन प्रणाली की अंगीकरण, ई-फाइलिंग और ई-पेमेंट गेटवे का सृजन तथा मामलों के निपटान में हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का प्रयोग करने की जरूरत होगी। मुझे खुशी है कि इस अवधारणा को बल मिल रहा है और इस कार्य में बढ़त बनाने के लिए मैं न्यायपालिका की सराहना करता हूं। सांध्‍यकालीन न्यायालयों और परिवार न्‍यायालयों जैसे नए नवाचारों तथा महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराध के मामलों में त्वरित, फास्‍ट-ट्रेक निर्णय देने के लिए किए गए ठोस प्रयास भी सराहनीय हैं।

9. सरकार की डिजिटल इंडिया पहल के अंतर्गत, अदालती मामलोंकी निगरानी करने और उनकी व्‍यवस्‍था सुचारू बनाने तथा सरकार के अपने मुकदमों को कम करने के लिए‘लीगल इनफॉरमेशन मैनेजमेंट एंड ब्रीफिंग सिस्टम’(एलआईएमबीएस) की शुरुआत की गई है। ‘लीगल इनफॉरमेशन मैनेजमेंट एंड ब्रीफिंग सिस्टम’ के अंतर्गत, सभी हितधारकों अर्थात् मंत्रालय से लेकर वकीलों, वादियों और अन्य लोगों को एक ही मंच पर लाने का प्रयास किया गया है। इससे देरी और वित्‍तीय लागत पर अंकुश लगेगा। अब तक 2.6 लाख अदालती मामले इस मंच पर पेश किए गए हैं। आय कर अपीलीय अधिकरण का डिजिटलीकरण तथा नोटरी प्रमाण-पत्र की ऑनलाइन प्रणाली भी सराहनीय हैं।

देवियो और सज्जनो,

10. विधिक शिक्षा का विषय प्रौद्योगिकी अंगीकरण और कुशल न्याय संदाय के साथ नजदीकी से जुड़ा हुआ है। आधारभूत ढांचे के उपयुक्त प्रयोग के लिए प्रणाली में शामिल सभी लोगों, चाहे वे न्यायाधीश हों, वकील हों या प्रशासक हों का प्रशिक्षण जरूरी है। न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण में सुधार के लिए काफी काम हुआ है। भोपाल में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के साथ-साथ लगभग सभी राज्यों में न्यायिक अकादमियां स्थापित की गई हैं।

11. वकीलों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया का हमारे देश में एक लंबा इतिहास रहा है और समय की जरूरत के हिसाब से इसमें विकास भी हुआ है। स्वतंत्रता के बाद, विधिक शिक्षा के ढांचे में सुधार के लिए अधिवक्ता अधिनियम-1961 के अधिनियमन के साथ पहलाकदम उठाया गया।भारत में विधिक शिक्षा के पर्यवेक्षण और संचालन के प्रमुख संस्थान के रूप में‘बार काउंसिल ऑफ इंडिया’कीस्थापना की गई थी।

12. सुधार का दूसरा चरण 1980 के दशक में शुरू किया गया। यह अनुभव किया गया कि चहुंमुखी विधिक शिक्षा के लिए एक बहु-विषयी और समेकित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। इसके परिणाम स्वरूप ऐसे सम-विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जहां भावी वकीलों को 5 वर्ष की अवधि के दौरान अनेक विषय पढ़ाए जाते हैं। इनमें कानून ही नहीं बल्कि सामाजिक विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान के पहलू भी शामिल हैं।

13. सम-विश्वविद्यालयों की स्थापना से उभरते हुए विधिक परिदृश्य का अनुमान लगा लिया गया। हाल के दशकों में हमारे वकीलों और विधिक पेशेवरों से उनकी कार्य-अपेक्षाओं के मामले में भारी बदलाव आया है। जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा है, कारोबार और व्‍यापार कानूनों और प्रौद्योगिकी कानूनों को नई महत्‍ता प्राप्‍त हुई है। इनके लिए विशेषज्ञता की जरूरत सामने आई है। इन नई शाखाओं के अध्‍ययन से हमारी विधिक शिक्षा में एक नया आकर्षण पैदा हुआ है।

14. अब हमें एक बार फिर उत्‍कृष्‍टता का पैमाना ऊंचा करने की जरूरत है। भारत के विधिक समुदाय को सरकारी विश्वविद्यालयों के पारंपरिक विधि संकाय से आधार प्राप्‍त होता है। निजी और नवान्वेषी साधनों से वृहत्‍तर वित्तपोषण तक पहुंच के साथ-साथ उनके नवीकरण के लिए साझे प्रयास किए जाने चाहिए। कुछ प्रतिष्ठित निजी विधिविद्यालयों के मामले में, बार कौंसिल ऑफ इंडिया उन्हें ‘उत्‍कृष्‍ट संस्थान’का दर्जा देकर अधिक स्वायत्तता प्रदान करने पर विचार कर सकती है।

15. इन्हीं शब्दों के साथ, मैं एक बार फिर इस सम्मेलन और उसके प्रतिभागियों तथा सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन को शुभकामनाएं देता हूं। आपका दायित्व यह सुनिश्चित करने का है कि आपकी परिचर्चाओं से किसी न किसी रूप में हमारे सर्वाधिक कमजोर और पिछड़े हुए लोगों तक कुशल और कम खर्चीला न्याय पहुंचाने में मदद मिले। यही आपकी सफलता की कसौटी होगी।

धन्यवाद

जय हिंद!