भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द द्वारा डॉक्टर लोहिया स्मृति व्याख्यान – 2018
ग्वालियर : 11.02.2018
1. आधुनिक भारत की राजनीति और समाज को, अपने चिंतन और संघर्ष से समृद्ध करने वाले, डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की स्मृति में आयोजित इस व्याख्यान-माला के लिए, मैं सभी आयोजकों को बधाई देता हूं।
2. इस व्याख्यान-माला में सम्बोधन करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी ने विशेष आग्रह किया। संसद सदस्य श्री डी. पी. त्रिपाठी जी ने भी अनुरोध किया। यह इनके डॉक्टर लोहिया के प्रति विशेष सम्मान को दर्शाता है। आज यहां आकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।
3. अपना जीवन लोक-कल्याण के लिए समर्पित करने वाले डॉक्टर लोहिया, देश की वंचित और पीड़ित जनता के हितों के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे।
4. देश के कोने-कोने में जाकर समाज के अंतिम व्यक्ति को उसका सम्मान-जनक स्थान दिलाने के लिए डॉक्टर लोहिया के अनवरत संघर्ष के साथ ग्वालियर का नाम भी जुड़ा हुआ है। सन 1962 के चुनाव में, ग्वालियर के लोकसभा क्षेत्र से रियासत की महारानी के खिलाफ सुक्खो रानी उम्मीदवार थीं, जो एक सफाई कर्मी थीं। 26 जनवरी 1962 के दिन भाषण देते हुए डॉक्टर लोहिया ने कहा कि यदि ग्वालियर के लोग सुक्खो रानी को विजयी बनाते हैं तो देश के इतिहास में यह एक दैदीप्यमान घटना होगी, और इससे एक बड़ी सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति का श्रीगणेश होगा। उन्होने यह भी कहा कि ग्वालियर का चुनाव उत्तर प्रदेश में फूलपुर के चुनाव से भी अधिक महत्वपूर्ण है जहां वे स्वयं नेहरू जी के विरुद्ध उम्मीदवार थे। डॉक्टर लोहिया के इस वक्तव्य को चुनाव और दलगत राजनीति के संदर्भ में देखने के बजाय, महिलाओं और वंचितों के सशक्तिकरण की दिशा में एक क्रांतिकारी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए।
5. ऐसा लगता है कि संसद से सड़क तक, समाज के अंतिम व्यक्ति के हक में, जन-चेतना की मशाल जलाने वाले, डॉक्टर लोहिया, सामाजिक विषमताओं और शोषण की राजनीति को चुनौती देने के लिए ही संभवतः पैदा हुए थे।
6. सन 1910 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में एक गांधीवादी परिवार में जन्मे, डॉक्टर लोहिया ने अठारह साल की उम्र में ही, ‘साइमन-कमीशन’ के खिलाफ प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। एक मेधावी विद्यार्थी के रूप में प्रतिष्ठा पाने के बाद, उन्नीस वर्ष की आयु में वे उच्च शिक्षा के लिए जर्मनी गए। वहां उन्होने, भारतीय जन-आंदोलन से जुड़े ‘नमक का अर्थ-शास्त्र’ विषय पर शोध-कार्य किया। केवल दो-तीन महीनों में ही उन्होने जर्मन भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया, और अपना शोध-प्रबंध जर्मन भाषा में ही लिखा। वे चौबीस वर्ष की आयु में भारत लौटे। उन्होने अपने जर्मनी प्रवास के दौरान ही यह तय कर लिया था कि स्वदेश लौटकर उन्हे आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभानी है। जवाहर लाल नेहरू उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। छब्बीस वर्ष की आयु में डॉक्टर लोहिया कांग्रेस की‘विदेश नीति विभाग’ के सचिव बने। वे विदेशों में रहने वाले भारतीयों की दशा के प्रति बहुत संवेदनशील थे। उन्होने गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराने के प्रयासों की शुरुआत की। बत्तीस वर्ष की आयु में वे‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के एक नायक के रूप में उभरे। अगस्त 1942 में, अग्रिम पंक्ति के सभी वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानियों के गिरफ्तार हो जाने के बाद, उन्होने लगभग बाईस महीनों तक भूमिगत रहकर, ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध आंदोलन का संचालन किया। अपना स्थान बदलते हुए, वे एक गुप्त रेडियो-स्टेशन चलाकर क्रांतिकारियों को संदेश देते रहे और आंदोलन से जुड़ी सामग्रियां प्रकाशित करके बंटवाते रहे। अंततः, मई 1944 में, वे गिरफ़्तार हुए और लाहौर जेल में उन्हे लगभग दो वर्षों तक एकांत कारावास में रखा गया। उन्हे अमानवीय यंत्रणाएं दी गईं। कहा जाता है कि अपनी क्रूरता पर गर्व करने वाले जिस जेलर ने शहीद भगत सिंह को यातनाएं दी थीं उसी को डॉक्टर लोहिया के लिए तैनात किया गया। लेकिन डॉक्टर लोहिया टूटे नहीं। ब्रिटिश हुकूमत आंदोलनकरियों के बारे में उनसे कुछ भी नहीं उगलवा सकी। उन्नीस सौ छियालीस में ब्रिटिश जेल से छूटने के बाद उसी वर्ष वे गोवा के स्वतन्त्रता सेनानियों को संबोधित करते हुए पुर्तगाली पुलिस द्वारा फिर से गिरफ्तार कर लिए गए। आजाद भारत में भी डॉक्टर लोहिया किसानों के हक में, महंगाई के खिलाफ और आम नागरिकों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए कई बार गिरफ्तार हुए। रंग-भेद के खिलाफ, सन 1964 में अमेरिका के मिसीसिपी राज्य में अश्वेतों के लिए प्रतिबंधित एक होटल में प्रवेश करने पर वे गिरफ्तार कर लिए गए। सन 1967 में केवल 57 वर्ष की आयु में ही, एक मामूली से उपचार के दौरान, उनका असामयिक देहावसान हुआ।
7. डॉक्टर लोहिया जहां कहीं भी अन्याय देखते थे, उनके अंदर का निर्भीक और न्याय-प्रिय विद्रोही जाग उठता था। कुल सत्तावन वर्ष के जीवन में वे लगभग अठारह बार गिरफ्तार किए गए थे। कारावास और निरंतर प्रवास से भरा उनका जीवन, अनैतिकता की राजनीति के विरुद्ध विभिन्न विचार-धाराओं वाले दलों को खुले दिल से एक साथ लाने की उनकी पहल के कारण, नीलकंठ शिवजी, मर्यादा पुरुषोत्तमरामचंद्र और योगेश्वर कृष्ण के चरित्रों के प्रति उनके आकर्षण का जीता-जागता उदाहरण बन गया। उनका एक प्रसिद्ध कथन है जिसमे वे भारत-माता से मांगते हैं कि, "हे भारत-माता! मुझे शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो”। इस तरह वे बुद्धि, हृदय और कर्तव्य-परायणता के समन्वय के उच्चतम स्तर को प्राप्त करना चाहते थे और देशवासियों में भी यही देखना चाहते थे। सामान्यतः लोग डॉक्टर लोहिया को नास्तिक और अनीश्वरवादी समझते थे क्योंकि वे परंपरागत रूप से आस्तिक और धार्मिक नहीं थे। धार्मिक चरित्रों का उल्लेख वे आदर्शों के प्रतीक के रूप में करते थे।
8. सन 1963 में वे पहली बार लोकसभा में चुनकर आए। उनके आने से सदन में एक नई ऊर्जा प्रवाहित हुई। एक ही ध्रुव पर स्थिर राजनीतिक विमर्श को उन्होने चुनौती दी। उनकी वजह से,लोगों को, कई संसदीय प्रक्रियाओं की जानकारी पहली बार हुई। संसद में सरकार के विरुद्ध पहला अविश्वास प्रस्ताव,उन्ही की प्रेरणा से, आचार्य कृपलानी ने पेश किया। संसद में,ज्ञान और तर्क पर आधारित सार्थक विरोध की शुरुआत हुई। इस तरह भारतीय लोकतन्त्र में सरकार की जवाबदेही और उत्तरदायित्व के पक्ष को उभारने में डॉक्टर लोहिया ने क्रांतिकारी भूमिका अदा की। उन्होने संसद में बहस की परंपरा को एक नई ऊंचाई और आयाम प्रदान किया। वे यह मानते थे कि सत्तारूढ़ पार्टी और उसके नेताओं ने जान-बूझकर अर्थ-व्यवस्था, भाषा और रहन-सहन के स्तर पर अपने आप को भारत की साधारण जनता से बहुत दूर कर लिया है।
9. आजादी की लड़ाई में, और उसके बाद भी, महात्मा गांधी का आखरी कदम तक अनुसरण करने वाले डॉक्टर लोहिया ने आजाद भारत की सरकार में गांधी के बताए रास्ते से भटकने वाले उनके शिष्यों की प्रखर आलोचना की। डॉक्टर लोहिया को आधुनिक भारत के निर्माताओं में आदरणीय स्थान प्राप्त है।
10. समाज में अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के कल्याण के लिए सदैव सक्रिय रहने वाले दीनदयाल उपाध्याय जी के साथ डॉक्टर लोहिया के विचार-विमर्श और सहयोग में प्रगाढ़ता थी। सन 1963 के उपचुनाव में डॉक्टर लोहिया ने दीनदयाल जी के समर्थन में, जौनपुर क्षेत्र में चुनाव रैली को संबोधित किया। अपने सरोकारों में समानता व्यक्त करते हुए डॉक्टर लोहिया और दीनदयाल जी ने कई बार मंच साझा किए। वे दोनों ही दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में सहयोग करने के लिए तत्पर रहते थे। दीनदयाल उपाध्याय के ‘समरस समाज’ और लोहिया के‘समता समाज’ में समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए वही संवेदना थी जो गांधी जी के‘सर्वोदय’ के विचारों में व्यक्त होती है।
11. जाति-प्रथा के समूल नाश के लिए, डॉक्टर लोहिया, ‘जाति-तोड़ो’ सम्मेलन का आयोजन किया करते थे। उन्होने जाति-प्रथा पर विस्तार से अनेक लेख लिखे हैं, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय एक लेख है, ‘जाति-प्रथा का नाश क्यों और कैसे हो?’
12. वे कहते थे कि जाति-प्रथा के गंदे कूड़े पर भ्रष्टाचार के कीड़े पैदा होते हैं, और पलते-बढ़ते हैं। उनका मानना था कि जाति-प्रथा के रहते भारत का समग्र विकास असंभव है। उन्होने सरकारी नौकरियों के लिए अंतर्जातीय विवाह को अनिवार्य बनाने की सलाह दी। वे मानते थे कि ऐसा करने से, पचास से सौ वर्षों में, जाति-प्रथा का समूल नाश हो सकेगा, और तभी भारत का असली स्वरूप सामने आयेगा।
13. डॉक्टर लोहिया की सोच के अनुसार,समाज के कमजोर वर्ग की परिभाषा में दलित, आदिवासी, महिलाएं और पिछड़ी जातियों के लोग शामिल थे। उन सभी के लिए डॉक्टर लोहिया‘विशेष अवसर’ प्रदान करने का सुझाव देते थे। उनका कहना था कि ‘समान अवसर’ तथा‘विशेष अवसर’ के बीच यदि चुनना पड़े तो‘विशेष अवसर’ को ही चुनना चाहिए। ‘समान अवसर’ की बात तब होनी चाहिए जब शिक्षा, नौकरी और जीविका आदि क्षेत्रों में सभी के लिए समान व्यवस्था हो।
14. पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर दिए जाने के वे प्रबल पक्षधर थे। एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि क्या एक पुरुष की एक से अधिक पत्नी होनी चाहिए, उन्होने दो-टूक जवाब दिया कि एक पुरुष की एक ही पत्नी होनी चाहिए। यह प्रश्न चुनाव के दौरान पूछा गया था और इस स्पष्ट उत्तर का उनकी पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। परंतु, डॉक्टर लोहिया के लिए महिलाओं की बराबरी का मुद्दा चुनावी परिणामों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। इसीलिए, वे अपने आदर्श राज्य की परिकल्पना का वर्णन, ‘रामराज्य’ की जगह‘सीता-राम राज्य’के रूप में करते थे।
15. डॉक्टर लोहिया ऐसी भाषा का प्रयोग करते थे जो अशिक्षित व्यक्ति भी समझ सके, हालांकि वे एक प्रकांड विद्वान थे तथा जर्मन, अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी और बंगला भाषाओं पर उन्हे अधिकार था। वे चाहते थे कि सभी के
बच्चों को समान स्तर की शिक्षा मिले। इस उद्देश्य को व्यक्त करने के लिए वे साधारण आदमी की जबान में कहते थे:
सबकी शिक्षा एक समान।
16. उनकी और भी ऐसी अनेक बातें लोगों की जबान पर चढ़ जाया करती थीं। उदाहरण के लिए गरीब किसानों के हक में भूमि सुधार की बात को उन्होने इन शब्दों में कहा:
जिसे अर्थशास्त्री अंग्रेजी में ‘Rent seeking activities’ कहते हैं उसे समाप्त करने की बात निहायत ही सरल और धारदार भाषा में डॉक्टर लोहिया इस प्रकार कहते हैं:
17. डॉक्टर लोहिया के निरंतर विचरण भरे जीवन, सब कुछ त्यागने के साहस, और खरी-खरी बात को सीधे-सीधे कहने के उनके स्वभाव को देखते हुए, उन्हे भारतीय राजनीति का कबीर कहा जा सकता है।
18. लोहिया जी कहते थे कि जो ऊंची जाति के लोग हैं, उन्हे स्वयं ही कमजोर वर्ग के लोगों को आगे बढ़ाना चाहिए। वे कहा करते थे कि जब तक ऊंची जाति के लोग अपने आपको समाज रूपी जमीन का उर्वरक नहीं बनाएंगे तब तक कमजोर वर्गों के गुलाब नहीं खिल पाएंगे।
19. भारत की भाव-भूमि से, अपनी विचारधाराओं के आधार-भूत तत्वों को ग्रहण करते हुए, समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना के विभिन्न रूप महात्मागांधी, डॉक्टर आंबेडकर, डॉक्टर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन और संघर्ष में देखने को मिलते हैं। इन सभी विभूतियों ने देश की समस्याओं के एकांगी और विदेशी समाधानों की जगह, समग्र और जमीनी सुधारों पर ज़ोर दिया। उनके रास्ते भले ही अलग-अलग थे, लेकिन उन सभी का एक ही उद्देश्य था: भारत के लोगों को, विशेषकर सबसे पिछड़े लोगों को, बराबरी और सम्मान का हक दिलाना। आज जरूरत है कि हमारे सभी देशवासी, भारतीय इतिहास के उस महान दौर के जन-नायकों की सोच से प्रेरणा लें; समाज की आखरी कतार में खड़े भारतवासी के चेहरे पर मुस्कान लाने का भरसक प्रयास करते रहें। ऐसे प्रयास करना ही डॉक्टर लोहिया की स्मृति को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
20.मैं एक बार फिर इस व्याख्यान-माला का आयोजन करने के लिए आयोजकों को बधाई देता हूं और अपने सभी देशवासियों के उज्ज्वल भविष्य की मंगल-कामना करता हूं।
धन्यवाद
जय हिन्द!