भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का आषाढ़ पूर्णिमा धर्मचक्र-प्रवर्तन-दिवस पर सम्बोधन
13.07.2022
कार्यक्रम में उपस्थित आप सभी महानुभावों को मैं को धर्मचक्र-प्रवर्तन दिवस की हार्दिक शुभकामनायें देता हूं। आज आषाढ़ पूर्णिमा का पवित्र दिन है। लगभग 2500 वर्ष पूर्व, आज ही के दिन भगवान बुद्ध ने सारनाथ की पवित्र भूमि पर अपने प्रथम पाँच शिष्यों को पहला प्रवचन दिया था। उसे ही धर्मचक्र-प्रवर्तनसूत्र के नाम से जाना जाता है।
आषाढ़ पूर्णिमा का यह दिन इसलिए भी अत्यंत पवित्र है क्योंकि परंपरानुसार इसी दिन भगवान गौतम बुद्ध ने अपनी माता महामाया के गर्भ में प्रवेश किया था तथा ठीक दस महीने बाद वैशाख पूर्णिमा के दिन उनका जन्म हुआ था।
भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम उपदेश के माध्यम से मध्यम मार्ग को ‘धम्म’ के बीज रूप में आरोपित किया। उन्होंने चार आर्य सत्यों के माध्यम से सांसारिक दुखों के कारण से लोगों को अवगत कराया तथा उनका निदान भी बताया जिसे द्वादश निदान कहते हैं। इस प्रकार भगवान बुद्ध ने एक कुशल वैद्य की तरह न केवल मनुष्य के सार्वभौमिक रोगों की पहचान की, अपितु उन्होंने ‘तृष्णा’ को दुख का प्रमुख कारण बताया। भगवान बुद्ध ने यह भी स्पष्ट किया कि दुखों के अन्त का एक मात्र उपाय है, तृष्णाओं की समाप्ति। उनके अनुसार, अष्टांगिक मार्ग पर चलकर मनुष्य दुख से छुटकारा पा सकता है।
देवियो और सज्जनो,
बौद्ध धर्म भारत की महानतम आध्यात्मिक परंपराओं में से एक रहा है। भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं से जुड़े कई पवित्र स्थल भारत में स्थित हैं। उन अनेक स्थानों में चार प्रमुख स्थान हैं – पहला बोध गया, जहां उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया; दूसरा सारनाथ, जहां उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया; तीसरा श्रावस्ती जहां उन्होंने सबसे अधिक चातुर्मास किए व प्रवचन दिये; और चौथा कुशीनगर, जहां उनका महापरिनिर्वाण हुआ।
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनकी शिक्षाओं से जुड़े अनेक मठ, तीर्थस्थल, विश्वविद्यालय आदि स्थापित किये गए जो ज्ञान और प्रसिद्धि के केंद्र रहे हैं। आज वे सभी स्थल बुद्ध-सर्किट के अंग हैं जो देश-विदेश के तीर्थ यात्रियों और धार्मिक पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
सौभाग्य से बिहार के राज्यपाल और भारत के राष्ट्रपति के रूप में मुझे भगवान् बुद्ध से जुड़े अनेक समारोहों में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता रहा है। वर्ष 2018 में, मुझे अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन के उद्घाटन का अवसर प्राप्त हुआ था। वर्ष 2019 में, राजगीर में स्थित'विश्व शांति स्तूप'की स्वर्ण जयंती समारोह में भी मैं शामिल हुआ था।
देवियो और सज्जनो,
भारत में विद्यमान विश्व के प्राचीनतम गणराज्यों में लोगों को शिक्षा देने वाले भगवान बुद्ध की स्मृति में निर्मित सांची स्तूप की बनावट राष्ट्रपति भवन की पहचान है क्योंकि राष्ट्रपति भवन के गुंबद की बनावट सांची स्तूप पर ही आधारित है। आधुनिक युग में भी राष्ट्रपति भवन विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत का सबसे महत्वपूर्ण भवन है।
जिस पीपल के पेड़ के नीचे समाधिस्थ होकर सिद्धार्थ गौतम ने बुद्धत्व प्राप्त किया था उसका एक छोटा सा पौधा मंगवाकर नवंबर 2017 में राष्ट्रपति भवन के एक बगीचे में मैंने लगाया। आज वह पौधा लगभग साढ़े सात फुट ऊंचा हो गया है। उसके बाद सन 2021 में मैंने राष्ट्रपति भवन परिसर के एक उद्यान में उसी पीपल का एक और पौधा लगाया। ये पौधे भगवान बुद्ध की विरासत के साथ जीवंत संबंध के रूप में राष्ट्रपति भवन में विद्यमान रहेंगे।
राष्ट्रपति भवन के सबसे प्रमुख कक्ष अर्थात दरबार हॉल में राष्ट्रपति की कुर्सी के पीछे भगवान बुद्ध की लगभग पंद्रह सौ साल पुरानी एक मूर्ति रखी गई है। यह मूर्ति, गुप्त काल के दौरान प्रचलित भारतीय-यूनानी मूर्तिकला का सुंदर उदाहरण है। भगवान बुद्ध के सिर के चारों ओर निर्मित प्रभामंडल, उनके मुखमंडल की शांति, आंखों में करुणा और हाथ की अभय मुद्रा का सुखद प्रभाव सभी देखने वालों पर पड़ता है। इस प्रकार, भौतिक शक्ति तथा सांसारिक वैभव का प्रदर्शन करने के उद्देश्य से निर्मित भवन में अहिंसा, करुणा और शांति का आध्यात्मिक अनुभव होता है।
देवियो और सज्जनो,
हमारे लोकतंत्र पर बौद्ध आदर्शों और प्रतीकों का गहरा प्रभाव रहा है। हमारा राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न सारनाथ के अशोक स्तम्भ से लिया गया है, जिसमें धर्म चक्र भी उत्कीर्ण है। लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी के पीछे, "धर्म चक्र प्रवर्तनाय" सूत्र अंकित है। हमारे संविधान के मुख्य शिल्पी, बाबासाहब डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने भी यह स्पष्ट किया है कि हमारे संसदीय लोकतंत्र में प्राचीन बौद्ध संघों की अनेक प्रक्रियाएँ अपनाई गई हैं।
हमारे राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी भी महा-कारुणिक बुद्ध के सार्वभौमिक प्रेम और करुणा के आदर्शों का पालन किया करते थे। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं गांधीजी के जीवन और आदर्शों में भी प्रतिबिम्बित होती हैं। बौद्ध धर्म का गांधीजी पर ऐसा प्रभाव था कि उन्होंने 'नम्यो हो रेंगे क्यो' मंत्र सीख लिया था और उनके प्रार्थना सत्र इसी मंत्र के साथ शुरू हुआ करते थे।
भगवान बुद्ध ने कहा था, 'नत्थि शांतिपरं सुखम्' जिसका अर्थ है 'शांति से बड़ा कोई आनंद नहीं है'। भगवान बुद्ध के उपदेशों में आंतरिक शांति पर जोर दिया गया है। शांति और विकास एक दूसरे को सुदृढ़ बनाते हैं।
आषाढ़ पूर्णिमा के पवित्र दिन, इन शिक्षाओं को स्मरण करने का उद्देश यही है कि सभी लोग भगवान बुद्ध के उपदेशों के सम्यक अर्थों को अपने चरित्र तथा मन में ढालें तथा विश्व की समस्त बुराइयों और असमानताओं को दूर कर शांति एवं करुणा से युक्त एक संवेदनशील विश्व का निर्माण करें।
आइये, आज धर्मचक्र प्रवर्तन दिवस के पावन अवसर पर हम सब भगवान बुद्ध के धम्म को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लें।
धन्यवाद,
जय हिन्द!