भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का गौड़ीय मठ के संस्थापक आचार्य, श्रीमद भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद के 150वें जन्म दिवस के उदघाटन समारोह में सम्बोधन
पुरी: 20.02.2022
आप सब के बीच यहां आकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे जगन्नाथपुरी आने और प्रभु जगन्नाथ के दर्शन करने का अवसर मिलता रहा है। यहां आकर गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रीमद सरस्वती प्रभुपाद की 150वीं जयंती से जुड़े इस समारोह में सम्मिलित होना मेरे लिए हर्ष का विषय है। मुझे बताया गया है कि इन समारोहों की श्रृंखला तीन वर्ष तक मनाई जाएगी जो सन 2025 में सम्पन्न होगी।
ईश्वर की कृपा से मुझे अपने जीवन में, देश के अनेक धर्मस्थानों और तीर्थ-स्थलों पर जा कर पूजा अर्चना करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इन सभी स्थानों में विविध परम्पराएं और धार्मिक प्रणालियाँ प्रचलित हैं। परन्तु इन आस्थाओं के पीछे एक ही सोच निहित है और वह है ईश्वर भक्ति के साथ-साथ पूरी मानवता को एक परिवार समझते हुए सबके कल्याण के लिए कार्य करना। मानवता का धर्म पर आधारित विभाजन नहीं किया जा सकता। सत्य को बांटा नहीं जा सकता। एक ही सत्य का कई रूपों में वर्णन किया जाता है । ऋग्वेद में यह स्पष्ट कहा गया है:
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति॥
अर्थात सत्य एक ही है,विद्वान लोग उसकी अनेक प्रकार से व्याख्या करते हैं।
वह परमशक्ति अपने सभी रूपों में पूजनीय है। भारत में भक्ति-भाव से ईश्वर को पूजने की परंपरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है। हमारी यह भारत भूमि धन्य है जहां अनेक महान विभूतियों ने लोगों को निस्वार्थ उपासना का मार्ग दिखाया है।
ऐसी महान विभूतियों में भी चैतन्य महाप्रभु को विशेष दर्जा प्राप्त है। उन्हें स्वयं भगवान विष्णु का अवतार भी माना गया है। इसीलिए महाप्रभु शब्द का प्रयोग ईश्वर के नाम के अतिरिक्त केवल श्री चैतन्य के लिए ही किया जाता है। उनकी विलक्षण भक्ति से प्रेरित होकर ही बड़ी संख्या में लोगों ने भक्ति का मार्ग चुना। श्री चैतन्य ने अद्भुत और अखंड भक्ति भाव का आजीवन पालन किया। अपनी इस अखंड आस्था के विषय में उन्होंने अनेक प्रकांड विद्वानों से भक्ति और ज्ञान के बारे में चर्चाएं की थीं। उनके द्वारा प्रस्तुत आस्था और तर्क के समन्वय के समक्ष सभी निशब्द होकर उनके चरणों में आश्रय लेते थे। ओडिशा के प्रख्यात वेदांती सार्वभौम से लेकर वैष्णव पठान के नाम से प्रसिद्ध हुए पठान समुदाय के भक्तों तक श्री चैतन्य का यह प्रभाव देखा जा सकता है।
देवियो और सज्जनो,
श्री चैतन्य महाप्रभु कहा करते थे:
तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन, कीर्तनीय: सदा हरि:॥
अर्थात
"मनुष्य को चाहिए कि अपने को तिनके से भी छोटा समझते हुए विनीत भाव से भगवन्नाम् का स्मरण करे। उसे वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए, मिथ्या प्रतिष्ठा की भावना से रहित होना चाहिए और अन्य लोगों को सम्मान देने के लिए तैयार रहना चाहिए। मनुष्य में यह भाव होना चाहिए कि ईश्वर सदैव कीर्तनीय हैं अर्थात व्यक्ति को सदैव ईश्वर का स्मरण करते रहना चाहिए। ”
यह भावना भक्ति मार्ग के सभी अनुयायियों में मिलती है। ईश्वर के प्रति निरंतर प्रेम-भाव तथा समाज को समानता के धागे से जोड़ने का उनका अभियान उन्हें भारतीय संस्कृति और इतिहास में अद्वितीय प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अपनी सारी इन्द्रियों को ईश्वर दर्शन की ओर केंद्रित कर देना जिससे, जिस प्रकार वे पहले वस्तुओं या परिस्थितिओं में प्रसन्नता का अनुभव करते थे, उसी प्रकार की प्रसन्नता भगवान की भक्ति में अनुभव कर सकें। उनका ईश्वर में इस प्रकार विलीन हो जाना कि कभी अपने को उनसे अलग समझ नहीं सके। यह है भक्ति-भाव और इस स्थिति को चैतन्य महाप्रभु 'महा भाव' कहा करते थे। ऐसी ही अवस्था का वर्णन करते हुए चैतन्य चरितामृत में कहा गया है - जिस प्रकार उद्धव के शुष्क ज्ञान से भरे वक्तव्य राधारानी की भक्ति-रस से सिंचित असम्बद्ध बातों के समक्ष प्रभावहीन हो जाते थे, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु की मधुर भक्ति की धारा के प्रबल वेग में दार्शनिक ज्ञान विलुप्त हो जाता है। राजपूताना की राजकुमारी मीरा बाई की अनन्य भक्ति उनके सरल शब्दों में व्यक्त हुई थी: "मेरे तो गिरधर गोपाल ,दूसरो न कोई।" मीरा की भक्ति ने सभी ईश्वर भक्तों के हृदय को छू लिया।
ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण के साथ-साथ, भक्ति-मार्ग में ईश्वर के प्रति एक व्यक्तिगत और आत्मिक सम्बन्ध बनाने की परंपरा भी थी। संत कबीर ने कहा था:
‘मोको कहाँ ढूंढे बन्दे,मैं तो तेरे पास में’
कबीर की इस पंक्ति में ईश्वर की भक्त से निकटता का विश्वास और भाव बड़ी सुंदरता से स्पष्ट होता है।
भक्त का हृदय ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कहीं सुख का अनुभव नहीं करता है। कृष्ण-भक्त सूरदास ने इसी भावना को व्यक्त करते हुए कहा:
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै,
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पे आवै।
अर्थात भक्त का मन अन्यत्र कहीं भी सुख का अनुभव नहीं करता है। जैसे जहाज का पक्षी बार-बार उड़कर जहाज पर ही वापस आ जाता है वैसे ही भक्त का हृदय बार-बार ईश्वर के चरणों में ही लौटता है।
भक्ति की पराकाष्ठा तो ऐसी होती है कि ईश्वर स्वयं भक्त के पास आ जाते हैं। राम-भक्त गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं:
चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसैं, तिलक देत रघुबीर॥
अर्थात चित्रकूट के घाट पर संतों की भारी भीड़ यह आश्चर्यजनक और हृदय को छू लेने वाला दृश्य देख रही है जिसमें तुलसीदास चन्दन का लेप तैयार कर रहे हैं और स्वयं भगवान श्री राम अपने मस्तक पर चन्दन का लेप लगा रहे हैं।
भक्ति-मार्ग के संतों की यह विशेषता उस समय के प्रचलित धर्म, जाति और लिंग भेद तथा धार्मिक कर्मकांडों से परे थी। अतः इससे हर वर्ग के लोगों ने प्रेरणा तो ली ही, इस मार्ग में शरणागत भी हुए। इसी प्रकार गुरु नानक ने भक्ति-मार्ग पर चलते हुए एक समता मूलक समाज के निर्माण हेतु प्रयास किया।
देवियो और सज्जनो,
पिछले सप्ताह मुझे हैदराबाद में श्रीरामानुजाचार्य की ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वॉलिटी’ का दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ। श्री रामानुजाचार्य विशिष्ट-अद्वैत के प्रतिपादक तो थे ही, वह भक्ति-मार्ग के महान प्रेरक भी थे। लोगों में भक्ति का संदेश प्रवाहित करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य ने स्वयं ही श्रीरंगम, कांचीपुरम, तिरुपति, सिंहाचलम, बद्रीनाथ, नैमिषारण्य, द्वारका, प्रयाग, मथुरा, अयोध्या, गया, पुष्कर और नेपाल में मुक्तिनाथ तक की यात्रा की। उनकी जगन्नाथ पुरी की यात्रा का विशेष उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार, देश के अनेक क्षेत्रों में महान विभूतियों ने भक्ति-मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। असम में शंकरदेव से लेकर गुजरात में नरसी मेहता तक तथा उत्तर में गुरु नानक से लेकर दक्षिण में मेल पत्तूर नारायण भट्ट-तिरि तक, कोई भी क्षेत्र भक्ति की इस धारा से अछूता नहीं रहा। गौड़ देश में चैतन्य महाप्रभु से लेकर महाराष्ट्र में संत तुकाराम, संत एकनाथ और संत ज्ञानेश्वर तक महान संतों ने पूरे देश को भक्ति भावना से एकाकार किया।
भक्ति की यह धारा देश से बाहर विदेशों में भी प्रवाहित हो रही है। यह कहा जा सकता है कि चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति के जिस महान वटवृक्ष को विकसित किया उसकी विभिन्न शाखाएं-प्रशाखाएं देश-विदेश में पुष्पित पल्लवित होती रही हैं। इसी परंपरा में इस्कॉन के संस्थापक स्वामी भक्ति वेदान्त प्रभुपाद भी आते हैं जिन्होंने पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति संदेश को पहुंचाया। ईश्वर भक्ति की ये सभी धाराएं वस्तुतः एक ही सत्य से जुड़ी हुई हैं और उनका वृहद स्वरूप पूरे विश्व में देखने को मिलता है।
ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की भक्ति-मार्ग की विशेषता मात्र आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु मानवता की सेवा को साकार करने वाली हर व्यक्ति की जीवन-शैली में भी देखने को मिलती है।इसी मानव सेवा के समर्पण-वृत्ति का एक रूप हमें डॉक्टर्स, नर्सेज तथा स्वास्थ्य कर्मियों की कर्त्तव्य निष्ठा में भी दिखाई देता है। सेवा-भाव को हमारी संस्कृति में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। हमारे डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य-कर्मियों ने भी कोविड महामारी के दौरान इस सेवा-भाव का प्रदर्शन किया। कोरोना वायरस से वे लोग भी संक्रमित हुए लेकिन उतनी विषम परिस्थितियों में भी, उन लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और त्याग व साहस के साथ लोगों के उपचार में जुटे रहे। हमारे अनेक कोरोना योद्धाओं ने अपनी जान भी गवाई परन्तु उनके सहकर्मियों का समर्पण अटल बना रहा। पूरा देश ऐसे योद्धाओं का सदा ऋणी रहेगा। मानवता की सेवा को ही जीवन का उद्देश्य मानने वाले हमारे कोरोना योद्धाओं ने जापान में प्रचलित ‘इकीगई’ की अवधारणा को सार्थक बनाया। हम सब को अपने जीवन की ‘इकीगई’ को पहचान कर उसे हासिल करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए , चाहे वह आध्यात्मिक हो अथवा व्यावसायिक।
देवियो और सज्जनो,
चैतन्य महाप्रभु के अतिरिक्त भक्ति आन्दोलन की अन्य महानविभूतियों ने हमारी सांस्कृतिक विविधता में एकता को शक्ति प्रदान की। भक्ति समुदाय के संत अपनी शिक्षाओं में एक-दूसरे का विरोध नहीं करते थे, अपितु प्रायः एक-दूसरे की कृतियों से प्रेरित होते थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर और संत रविदास सहित अनेक विभिन्न संप्रदायों के संतों की वाणी का समावेश किया गया है। जहाँ अद्वैत, विशिष्टा-द्वैत और द्वैत की स्थापना की जा रही थी, वहीं सहजता और सहिष्णुता की धारा भी प्रवाहित हो रही थी।
1893 में जब हमारा देश उपनिवेशवाद के बंधनों में जकड़ा हुआ था, उस समय स्वामी विवेकानंद ने भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गौरव का उदाहरण संपूर्ण विश्व के सामने शिकागो धर्म सम्मलेन में प्रस्तुत किया था। स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में विश्व समुदाय के समक्ष भारत के आध्यात्मिक संदेश को प्रस्तुत करते हुए कहा कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां अंततः समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है, ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगे लेकिन अंत में सब ईश्वर तक ही पहुँचते हैं। आध्यात्मिक एकता का भारत का यह सिद्धांत रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रसारित किया गया था जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी अपनाया था।
देवियो और सज्जनो,
मैं भारत के पूर्वी क्षेत्र की उन महान आध्यात्मिक विभूतियों का उल्लेख करना चाहूँगा जिन्होंने विश्व पटल पर हमारे देश को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाया। मध्यकाल में जब भक्ति आंदोलन अपनी चरम पर था, तब भारत के पूर्वी क्षेत्र को गौड़ नाम से जाना जाता था। संभवतः इसीलिए श्री सरस्वती प्रभुपाद जी ने विश्व-वैष्णव-राजसभा को गौड़ीय मठ का नाम दिया था। उनके प्रयासों से देश के विभिन्न शहरों में गौड़ीय मठ की स्थापना हो सकी और श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के अनुसार , वे मानव जाति के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रासंगिक शिक्षाओं का प्रसार करते रहे हैं।
मैं आशा करता हूँ कि गौड़ीय मिशन, मानव कल्याण के अपने इस उद्देश्य को सर्वोपरि रखते हुए चैतन्य महाप्रभु की वाणी को विश्वभर में प्रसारित करने के अपने संकल्प में सफल होगा। एक बार फिर, सरस्वती प्रभुपाद जी की 150वीं जयंती से जुड़े समारोहों की सफलता के लिए आप सभी को मैं हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ।
धन्यवाद,
जय हिन्द!