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द हिन्दू 'हडल' के आयोजन के अवसर पर भारत के राष्‍ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्‍द का संबोधन

बंगलुरु : 22.02.2020

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1. ‘द हिन्दू’ समाचार पत्र द्वारा आयोजित विचारमंच - ‘द हडल’ - में भाग लेते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। ‘द हिन्दू’ नाम न केवल भारत की सांस्कृतिक विविधता का परिचायक है, बल्कि इतिहास के उस विस्तार को भी अपने आप में समेटे हुए है जो सभ्यताओं के संदर्भ में विश्व भर में बेजोड़ है।

2. ‘द हिन्दू’ प्रकाशन समूह, अपनी जिम्मेदार और नैतिकतापूर्ण पत्रकारिता से इस महान देश के सत्त्व को प्रस्तुत करने का निरंतर प्रयास करता रहा है। मैं पत्रकारिता के पांच मूलभूत सिद्धांतों पर अडिग रहने के लिए आप सबकी सराहना करता हूं। ये पांच सिद्धान्त हैं— सत्यकथन, स्वतंत्रता, न्याय, मानवीयता और समाज की भलाई में योगदान। मैं यहां, श्री एन. राम की सुंदर व्याख्या का उल्लेख कर रहा हूं जिसमें इन सिद्धांतों को ‘द हिन्दू’ प्रकाशन समूह का ‘पंचशील’ बताया गया है।

3. जन हित के विविध मुद्दों पर विचार मंथन के लिए एक मंच के रूप में ‘द हडल’ के आयोजन के लिए आप सभी प्रशंसा के पात्र हैं। मुझे विश्वास है कि इस मंथन से निकलने वाले अमृत से यह राष्ट्र और पूरा विश्व लाभान्वित होगा।

4. मैं आप को बताना चाहूंगा कि सभ्यता के संदर्भ में, इस भूमि पर ‘द हडल’ का आयोजन प्रासंगिक क्यों है। पश्चिमी देशों में निर्णय लेने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लाभ की समझ विकसित होने से बहुत पहले, असाधारण बुद्धिमत्ता से सम्पन्न दार्शनिक संत बसवेश्वर ने 12वीं शताब्दी में ‘अनुभव मंटपा’ कही जाने वाली सामूहिक विचार—विमर्श की संस्कृति को आगे बढ़ाया। इसे विश्व की आरंभिक संसदों में से एक माना जाता है जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग अपनी राय व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किए जाते थे। यह स्त्री—पुरुष समानता का भी एक अनूठा प्रयोग था जिसमें स्त्रियों को भी चर्चा में भाग लेने और अपने विचार रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। हम भारतीयों का सौभाग्य है कि भगवान बसवेश्वर जैसे संत हमारे पूर्वज रहे हैं।

5. भारतीय जन-मानस ने अनादि काल से ही, वाद-विवाद और चर्चा को सत्य तक पहुंचने के माध्यम के रूप में आत्मसात कर रखा है। वे साध्य तक पहुंचने के साधन रहे हैं। विनोदपूर्ण शैली में कहा जाए तो मैं उस युग की बात कर रहा हूं जब टीवी पर गरमा-गरम बहसें शुरू नहीं हुई थीं। संक्रमण के इस दौर में भी, ‘द हिन्दू’ ने समाचारों और विचारों के जरिए, जानकारी-युक्त वाद-विवाद की परंपरा जारी रखी है। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ‘द हिन्दू’ मुद्रित शब्द की गरिमा बनाए रखना चाहता है और सत्य की विचारधारा पर मजबूती से टिका हुआ है।

6. निःसंदेह, सत्य की हमारी समझ भी परिस्थितियों से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, हम दिन के क्रम को सूर्योदय और सूर्यास्त से व्यक्त करते हैं। लेकिन हम जानते हैं कि यह केवल समझने और समझाने का एक रूपक है, सत्य नहीं। निरंतर अनुसंधान के बाद अब हम भली-भांति जान गए हैं कि सूर्य न उगता है, न अस्त होता है। सत्य के पक्षों को धूमिल करने वाली स्थितियों का निराकरण वाद-विवाद, चर्चा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से विकसित विचारों द्वारा किया जा सकता है। पूर्वाग्रह तथा हिंसा से सत्य की खोज बाधित होती है।

7. उपमहाद्वीप के सबसे पुराने समाचारपत्रों में से एक, ‘‘द हिन्दू’ ने राष्ट्र—निर्माण में प्रचुर योगदान किया है। किशोरावस्था पार करते ही, मद्रास के छह निर्भीक युवाओं ने हमारे सांस्कृतिक गौरव के पुनरुत्थान के लिए 1878 में ‘द हिन्दू’ समाचारपत्र की स्थापना की। उन्होंने उस समय शिखर पर आसीन साम्राज्यवादी ताकत को चुनौती दी और राष्ट्रवाद को शक्ति प्रदान की। तब से ही, ‘द हिन्दू’ की यात्रा उन सभी के लिए काफी शिक्षाप्रद रही है जो भारत की आत्मा को समझना चाहते हैं। पाठकों ने भी बहुत उत्साह दिखाया है। चेन्नई और अन्य अनेक स्थानों में, लोगों के लिए सुबह की शुरुआत का मतलब होता था, फिल्टर कॉफी का प्याला और ‘द हिन्दू’ अखबार।

8. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इस समाचार पत्र के उत्साही पाठकों में से एक थे। 1928 में, ‘द हिन्दू’ की स्वर्ण—जयंती के अवसर पर गांधीजी ने लिखा था, ‘‘स्वर्ण—जयंती के अवसर पर ‘द हिन्दू’ को मिलने वाली अनेक सराहनाओं में अपनी प्रशंसा को भी मैं खुशी से जोड़ता हूं। पूरे देश में भारतीयों के स्वामित्व वाले सभी समाचारपत्रों में ‘द हिन्दू’ को, अगर सर्वश्रेष्ठ नहीं, तो सर्वश्रेष्ठ में से एक पत्र मैं मानता हूं।’’

9. गांधीजी का ‘सत्याग्रह’— यानि ‘सत्य के प्रति आग्रह’ सत्य की उनकी अनूठी समझ पर आधारित था। हम सब जानते हैं कि गांधीजी एक पत्रकार भी थे और दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में उन्होंने अनेक भाषाओं में अनेक पत्र—पत्रिकाओं का सम्पादन किया था। उनकी पत्रकारिता उद्देश्य—परक थी। लेकिन वह इस बात के प्रति पूरी तरह सजग थे कि पत्रकारिता का अंतिम उद्देश्य तो सत्य ही होता है। इसीलिए उन्होंने पत्रकारिता में दबे पांव प्रवेश कर गए उथलेपन, एकांगिता, अशुद्धियों, और बेईमानी के खिलाफ भी सावधान किया। मोहनदास से महात्मा बनने की यात्रा के दौरान सत्य ही उनका एकमात्र लक्ष्य था, सच्चाई ही उनकी तलाश थी।

10. कभी—कभी कट्टर विचार और निजी पूर्वाग्रह सत्य को तोड़—मरोड़ देते हैं। गांधीजी के 150वें जयंतीवर्ष में, हम इस प्रश्न पर विचार करें— क्या सत्य की तलाश को ही विचारधारा मानना उचित नहीं होगा? ब्रह्मांड को समृद्ध करने वाले सभी सकारात्मक गुणों को अंततः स्वयं में समाहित कर लेने वाले सत्य की तलाश में निरंतर चलकर गांधीजी ने हमारा मार्गदर्शन किया है।

11. लेकिन आज हम संभवतः ‘उत्तर—सत्य’ अर्थात ‘पोस्ट ट्रुथ’ कहे जाने वाले समय में जी रहे हैं। यह अनुमान करना कठिन है कि गांधीजी इसके विषय में क्या कहते। पिछले कुछ समय से, सत्य की अनेक तरीकों से व्याख्या करने और इसके विभिन्न चरणों को परिभाषित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, मानों कोई अंतिम सत्य है जो कि तात्कालिक सच्चाईयों से परे है। मेरे विचार में ऐसे प्रयासों का, शब्दार्थों से जुड़े तर्क का आनंद लेने के सिवा और कोई महत्व नहीं है। सत्य सर्वथा निरपेक्ष व अपरिवर्तनशील है जिसे पूर्वाग्रहों के पट्टे से ढंका नहीं जा सकता है। ‘मेरा सत्य’ और ‘तुम्हारा सत्य’ अलग—अलग नहीं हो सकते। सत्य तो एक ही होता है।

12. मुझे विश्वास है कि समाज निरंतर संवाद, तर्क—वितर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जरिए सत्य की खोज की इसी दिशा में बढ़ता रहा है। समाज कैसे अपने आप को बदल रहा है, इसका मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। दो सप्ताह पूर्व, मैं राष्ट्रपति भवन परिसर में स्थित केंद्रीय विद्यालय में बच्चों से मिलने गया था। बच्चों ने मुझसे मूलभूत कर्तव्यों के बारे में अनेक प्रश्न पूछे। कई बच्चों ने पूछा कि मूलभूत कर्तव्यों को नागरिकों के लिए अनिवार्य क्यों नहीं बना दिया जाना चाहिए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब ग्यारहवीं कक्षा की एक बालिका ने पूछा कि क्या यह उचित नहीं होगा कि नागरिकों द्वारा उनके वाजिब करों का भुगतान, मताधिकार का प्रयोग, नियमों का पालन और संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान कानूनन अनिवार्य कर दिया जाए। बिना किसी के सिखाए, ऐसे प्रश्न पूछे जाने से यह संकेत मिलता है कि नई पीढ़ी में अपने ही अनुभव के जरिए सत्य तक पहुंचने की ललक है।

13. आज के विश्व को स्वरूप देने में सबसे बड़ी भूमिका इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी की है। यह इतनी तेजी से विकसित हो रही है कि कुछ ही वर्षों पहले जिसे अकल्पनीय समझा जाता था वह न केवल यथार्थ का रूप ले चुका है बल्कि अपनी नवीनता भी खो चुका है। इन बदलावों ने समाचारों के संकलन, उन्हें पाठकों तक पहुंचाने और इस कार्य को जारी रखने के लिए धन अर्जित करने जैसे पत्रकारिता के सभी आयामों पर प्रभाव डाला है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पत्रकारिता का लोकतंत्रीकरण किया है और लोकतंत्र में नई जान फूंकी है। यह प्रक्रिया जारी है लेकिन अपने वर्तमान चरण में, इसने कई चिंताओं को भी जन्म दिया है। नया मीडिया तेज व लोकप्रिय है और लोग यह चयन कर सकते हैं कि वे क्या देखना, सुनना अथवा पढ़ना चाहेंगे। लेकिन परंपरागत मीडिया ने ही किसी समाचार रिपोर्ट की सत्यता को जांचने का कौशल विकसित किया है और यह एक खर्चीली प्रक्रिया है। इस संदर्भ में, मुझे विश्वास है कि हम शीघ्र ही आदर्श संतुलन की स्थिति प्राप्त कर लेंगे। तब तक, परंपरागत मीडिया को समाज में अपनी भूमिका के बारे में आत्म—चिंतन करना होगा और पाठकों का पूर्ण विश्वास पुनः अर्जित करने के तौर-तरीके तलाशने होंगे। सूचना सम्पन्न नागरिकों के बिना अर्थात निष्पक्ष पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र की परिकल्पना अधूरी है।

14. ‘द हिन्दू’ को दिशा दे रहे महानुभावों को मालूम है कि 142 वर्ष पूर्व, इस समाचारपत्र की यात्रा भी एक ‘हडल’ से ही शुरू हुई थी। निश्चय ही, वही विचारधारा इस आयोजन के नामकरण के पीछे भी रही होगी। इस ‘हडल’ के विषयों के व्यापक दायरे में राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, पर्यावरण, मनोरंजन, स्त्री—पुरुष समानता और खेल—कूद शामिल हैं। इस सम्मेलन में, समाज और देश के हित में, मिल जुलकर विचार—विमर्श करने तथा कार्यनीतियों की समीक्षा करने के लिए वक्ताओं को आमंत्रित किया गया है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के दर्शन के अनुरूप, समूचे ब्रह्मांड का कल्याण, इस प्रयास में निहित है। मैं भविष्य के लिए रोडमैप तैयार करने वाले इस सम्मेलन के आयोजन के लिए ‘द हिन्दू’ प्रकाशन समूह की एक बार फिर सराहना करता हूं।

15. आप सभी को मेरी शुभकामनाएं!

जय हिन्‍द!