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राष्ट्रीय विधि दिवस सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का संबोधन

नई दिल्ली: 25.11.2017

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1. भारत के विधि आयोग और नीति आयोग द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित राष्ट्रीय विधि दिवस का उद्घाटन करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। हमारा संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अपनाया गया। दो महीने के बाद, 26 जनवरी, 1950 को, संविधान लागू हो गया और भारत एक गणतंत्र बन गया। वर्ष 1979 से उच्चतम न्यायालय में 26 नवम्बर का दिन ‘राष्ट्रीय विधि दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा। 2015 में, केन्द्र सरकार ने इस आयोजन को नई गति दी और इसे राजपत्र में विधिवत अधिसूचना जारी करके ‘संविधान दिवस’ का नाम दिया।

2. नामकरण की यह जुड़वां प्रक्रिया उचित ही थी। विधि और संविधान का स्वाभाविक संबंध सहजीवी है। हमारा संविधान हमारे कानूनों का प्रमुख स्रोत तो है ही, वह विधि के धर्म में सहज विश्वास करने वाले लोकाचार और जीवन-मूल्य व्यवस्था का संरक्षक भी है। इस दिन, हम संविधान मूल्य व्यवस्था का संरक्षक भी है। इस दिन, हम संविधान सभा के उन सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने हमें यह ऊर्जावान और प्रेरक दस्तावेज प्रदान किया जिसे हम ‘संविधान’ कहते हैं। हम विशेष रूप में ‘प्रारूप समिति’ के अध्यक्ष और एक मायने में हमारे संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के प्रति समादर व्यक्त करते हैं।

3. मैं विधि आयोग की भी सराहना करता हूं। यह एक ऐसा गौरवपूर्ण राष्ट्रीय संस्थान है जिसने हमारे कानूनों में सुधार करने, न्याय संदाय में बढ़ोत्तरी करने और प्रक्रियाओं को सरल बनाने में अमूल्य योगदान दिया है। वास्तव में, यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और इसीलिए विधि आयोग का अधिदेश अभी जारी है।

4. मुझे बताया गया है कि इस सम्मेलन का कार्यक्षेत्र कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच समागम की विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द निर्मित किया गया है। मुझे इस सम्मेलन में होने वाले विचार-विमर्श और कार्रवाई योग्य निष्कर्षों की प्रतीक्षा रहेगी। परिचर्चा के स्वरूप के बारे में कोई पूर्वानुमान किए बिना मैं यहां उपस्थित विशिष्ट श्रोताओं के समक्ष कुछ विचार प्रस्तुत करता हूं कि हम जिस न्याय संदाय प्रणाली को इतना मूल्यवान समझते हैं, उसे मज़बूत करने के प्रयास हम सभी किस प्रकार कर सकते हैं।

5. जिस पहले बिन्दु पर, मैं जोर देना चाहता हूं, वह इस जरूरत के बारे में है कि तीव्र न्याय अधिक कुशलता के साथ सुनिश्चित किया जाना है। हम अपने न्यायालयों और उनकी स्वतंत्रता पर गर्व करते हैं परन्तु विरोधाभास यह है कि गरीब लोग अकसर लम्बी प्रक्रिया और खर्च की चिन्ता में कानूनी लड़ाई से पीछे हट जाते हैं। कभी-कभी धनी लोग साधारणत: जिन मुद्दों का समाधान होता नहीं देखना चाहते हैं, वे इन मुद्दों के समाधान में देरी करने के लिए न्यायिक प्रक्रिया और इसकी जटिलताओं का इस्तेमाल करते हैं।

6. इस विरोधाभास पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, शायद अब समय आ गया है कि स्थगनों के मुद्दे की जांच की जाना चाहिए और इस बात की जांच भी की जानी चाहिए कि क्या इन्हें नितान्त आपात स्थिति तक सीमित रखा जाना चाहिए या किसी न किसी पक्ष द्वारा सुनियोजित रूप से देरी कराने की लगातार छूट देते रहना चाहिए।

7. यह समय तीव्र संचार और प्रौद्योगिकी का है। हमें न्याय संदाय प्रक्रिया को तेज करने के लिए इन साधनों का प्रयोग करना चाहिए। हमारे लोगों की उम्मीदें बहुत अधिक हैं और ऐसा होना उचित भी है। और, केवल न्यायपालिका में ही उन्हें पूरा करने की क्षमता है। मामलों को अदालतों तक पहुंचने की नौबत न आने देने सहित वैकल्पिक विवाद समाधान व्यवस्थाओं पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।

8. मेरा दूसरा बिन्दु, आम व्यक्ति की न्याय तक पहुंच के बारे में है। यह बिन्दु कुशलता और रफ्तार के मुद्दे से जुड़ा हुआ भी है और उससे अलग भी है। भारत के बारे में यह बात प्रसिद्ध हो गई है कि यहां की विधिक प्रणाली महंगी है। कुछ हद तक इसके लिए इसके लिए देरी का कारण जिम्मेवार है, परन्तु इसके पीछे प्रश्न यह भी है कि न्याय के लिए फीस चुकाने की क्षमता कितने लोगों में है।

9. न्याय तक पहुंच अकेले वकीलों के जरिए ही नहीं बनाई जा सकती। वकीलों के बिना भी दीवानी प्रार्थना-पत्रों के निपटान की कल्पना की जा सकती है। मुझे यह भी मालूम है कि अपनी विधिक जिम्मेदारियों से परे जाकर, समाज का राय चुकाने के तौर पर बहुत से वकील पहले ही मुफ्त सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। वे यह कार्य या तो राज्य स्तर के अथवा राष्ट्रीय स्तर के विधिक सेवा प्राधिकरण के जरिए या अपने-अपने तरीके से करते हैं। इसकी सराहना की जानी चाहिए।

10. फिर भी, इस व्यवस्था को व्यक्तिगत नेकनीयती पर छोड़ देने की बजाय संस्थागत रूप दिया जाना महत्वपूर्ण होगा। कोई अपेक्षाकृत गरीब व्यक्ति वित्तीय या ऐसी ही परेशानियों के कारण निष्पक्ष सुनवाई के लिए न्याय का दरवाजा नहीं खटखटा सकता, यह बात हमारे संवैधानिक मूल्यों और हमारी गणतांत्रिक लोकाचार के विरुद्ध है। यह हमारी सामूहिक अन्तरात्मा पर एक बोझ है। मैं इसका जवाब ढूंढ़ने की जिम्मेदारी अपनी विधिक बिरादरी पर, हमारे वकीलों और अधिवक्ताओं और हमारे बार एसोसिएशनों पर डालता हूं।

11. पहुंच का संबंध कानूनों को सरल बनाने और अप्रचलित कानूनों को रद्द करने से भी है। इस क्षेत्र मेंविधि आयोग ने हमारे देश की प्रचुर सेवा की है। मुझे ज्ञात है कि सरकार ने लगभग 1800 कानूनों की पहचान की है जिन्हें विधि संहिताओं से निकाल बाहर करने की ज़रूरत है। पिछले तीन वर्षों में दौरान संसद ने लगभग 1200 अप्रचलित और अनावश्यक कानूनों को रद्द किया है। इससे विधि संहिताओं का बोझ कम होगा और शासन में सरलता को बढ़ावा मिलेगा।

12. इसी प्रकार, विधिक साक्षरता बढ़ाना और कानूनी नियमों को सरल बनाना; फैसले सुनाते समय भाषा सुबोध रखना ताकि इन्हेंज्यादा से ज्यादा लोग समझ सकें; और जैसा कि मैंने पहले सुझाव दिया था, राज्य या प्रदेश की स्थानीय भाषा में उच्च न्यायालय के फैसलों की प्रमाणित अनूदित प्रतियों को शीघ्र-अतिशीघ्र उपलब्ध करवाना-ये सभी ऐसे प्रयास हैं जिनसे न्याय तक आम नागरिकों की पहॅुंच और सुगम होगी।

13. हम तेजी से बदल रही दुनिया में रह रहे हैं और मेरा तीसरा बिन्दु, समाज और अर्थ-व्यवस्था में बदलाव के अनुरूप अपने विधिक और विनियामक ढांचों को अद्यतन बनाए जाने के बारे में है। हाल के समय में, नए हालात से मुकाबला करने के लिए नए कानून अधिनियमित किए गए हैं। उदाहरण के लिए, ‘वस्तु और सेवा कर’ कानून सेदेश के आर्थिक एकीकरण में मदद मिली है। अन्य बातों के साथ-साथ राज्यों यह अधिकार मिला है कि वे सेवाओं पर कर लगा सकें। इससे सहकारी संघवाद के लक्ष्य को बढ़ावा मिला है। दिवालियापन और ऋण शोधन अक्षमता या सामाजिक क्षेत्र में 26 सप्ताह का सवेतन प्रदान करने से संबंधित नए कानून, उभरती हुई आर्थिक आवश्यकताओं और सामाजिक जागरूकता के उचित समाधान हैं।

14. यह एक ऐसा युग है जिसमें प्रौद्योगिकी के विकास की गति कानून से काफी अधिक है। हम इंटरनेट कानून और साइबरस्पेस विनियमन के मामले में इसके बारे में पहले ही समझ चुके हैं। हम चौथी औद्योगिक क्रांति में प्रवेश कर रहे हैं। मानव और मशीन के बीच के रिश्ते हमारे पुराने तौर तरीकों को और यहां तक कि हमारी लोकाचारी मान्यताओं को भी आजमाएंगे। हमारी विधिक प्रणाली और हमारी न्यायपालिका को इनके लिए प्रतिसंवेदी बने रहना होगा। नवान्वेषणों के संबंध में प्रतिक्रिया तैयार करने के लिए हमारे विधिवेत्ताओं के पास उपलब्ध समय अपेक्षाकृत और घटता जाएगा।

15. आने वाले दिनों में, इसके लिए बेहतर विधिक विशेषज्ञता और मध्य-वृत्तिक कौशलों को अद्यतन बनाने की ज़रूरत होगी। हम एक बिल्कुल नई स्थिति का सामना करने वाले हैं जिसमें पारंपरिक मानवीय कानूनों का टकराव बुद्धिशील मशीनों से होगा। मुझे विश्वास है कि हमारी न्याय प्रणाली इस चुनौती में भी आगे ही रहेगी।

16. मेरा अंतिम बिन्दु, मानव संसाधनों को और ज्यादा उन्नत बनाने के मुद्दे से जुड़ा है। हमारी उच्चतर न्यायपालिका को असाधारण गुणवत्ता वाला माना जाता है। विधि और न्याय के आपसी संबंध की बारीक समझ के लिए इसे विश्वभर में प्रतिष्ठा प्राप्त है। हमारी निचली न्यायपालिका को संभवत: कुछ क्षमतागत सहयोग की आवश्यकता है। इस कारण कभी-कभी यह अनायास और भ्रामक छवि बन जाती है कि हमारी उच्च न्यायपालिका एक संभ्रांतवादी उपक्रम है।

17. जिला और सत्र न्यायाधीशों को तैयार करने और उनके कौशल को बढ़ाने का पावन कर्तव्य उच्च न्यायपालिका का है। इस प्रकार से, उनमें से अधिक से अधिक न्यायाधीश तरक्की करके उच्च न्यायालय तक पहुंच सकते हैं। इससे हमारी निचली अदालतों और उनके फैसलों के प्रति भरोसा बढ़ेगा और हमारे उच्च न्यायालयों का बोझ हल्का होगा।

18. हमारे अधीनस्थ न्यायालयों, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के 17,000 न्यायाधीशों में से लगभग 4,700 अर्थात् मोटे तौर पर चार में से एक, महिला न्यायाधीश हैं। इसके अलावा, खास तौर से उच्च न्यायपालिका में अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों जैसे पारंपरिक रूप से कमजोर तबकों का प्रतिनिधित्व अस्वीकार्य रूप से कम है। गुणवत्ता से समझौता किए बिना, हमें इस स्थिति से निपटने के दीर्घकालिक उपाय करने होंगे। हमारे अन्य सार्वजनिक संस्थानों की भांति, हमारी न्यायपालिका को भी हमारे देश की विविधता और हमारे समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधि बनने की समझदारी दिखानी होगी।

देवियो और सज्जनो,

19. आज का सार्वजनिक जीवन, एक शीशे का घर है। पारदर्शिता और संवीक्षा की मांग निरंतर की जा रही है। हमारी विधिक बिरादरी को लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़े मालिक यानी-जनता की इन जायज मांगों पर ध्यान देने की जरूरत है। राज्य के इन तीनों अंगों-न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका पर सदाचार की मिसाल बनने का दायित्व है। उन्हें एक दूसरे के सुपरिभाषित कार्य क्षेत्रों का उल्लंघन न करने की सावधानी बरतनी होगी और कोई ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए जहां किसी कदम को उल्लंघन समझ लिया जाए जब कि ऐसे उल्लंघन का कोई इरादा था ही नहीं।

20. ऐसा अनेक परिस्थितियों में ऐसा हो सकता है। उदाहरण के लिए, जब किसी सुविचारित निर्णय की पर्याप्त जानकारी और विवेचना को दरकिनार करते हुए असंगत टिप्पणियॉं और इतरोक्तियां सार्वजनिक वाद-विवाद पर हावी हो जाती हैं।

21. मुझे विश्वास है कि बिन्दु और ये और अनेक अन्य बिन्दु, इन दो दिनों के दौरान विचार-विमर्श का हिस्सा बनेंगे। मुझे प्रतीक्षा रहेगी-उपयोगी विचार-विनिमय और सिफारिशों की। मैं, सम्मेलन और यहां उपस्थित सभी लोगों को राष्ट्रीय विधि दिवस की शुभकामनाएं देता हूं।


धन्यवाद ।