भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में संबोधन
केवड़िया, गुजरात : 25.11.2020
यह बहुत प्रसन्नता का विषय है कि All India Presiding Officers’ Conference का यह सम्मेलन, सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा के सान्निध्य में हो रहा है। उनकी यह प्रतिमा, विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा है। यह हम सभी देशवासियों के लिए, गौरव की बात है। देश की एकता और अखंडता के सूत्रधार रहे सरदार पटेल की प्रतिमा को ‘Statue of Unity’ कानाम दिया जाना बहुत ही अर्थवान है। इसीलिए, उनका जन्म दिवस, प्रति वर्ष 31 अक्टूबर को, पूरे देश में ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
यह एक सुखद संयोग है कि आज देवोत्थान एकादशी का पावन दिवस है। बोलचाल की भाषा में, देश के अनेक हिस्सों में इसे ‘देव-उठनी’ एकादशी भी कहते हैं। यह मान्यता है कि आज के दिन से सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता बढ़ती है तथा मांगलिक कार्यों का शुभारंभ किया जाता है। मैं आप सभी को इस शुभ अवसर की बधाई देता हूँ। इसे दैवी संयोग माना जा सकता है कि कोरोना महामारी से उत्पन्न स्थिति के कारण, पिछले 9 महीनों में आज पहली बार, मुझे किसी सभा को सीधे संबोधित करने का अवसर प्राप्त हुआ है। विषम परिस्थितियों में इस सम्मेलन का आयोजन करने से जुड़े, सभी महानुभावों के प्रयासों की, मैं सराहना करता हूँ।
वर्ष 1921 में स्थापित A.I.P.O. Conference, इस वर्ष अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रही है। लगभग 100 वर्ष से सम्मेलन का आयोजन होना एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। दो दिन का यह सम्मेलन कल 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ पर समाप्त हो रहा है। हम सब जानते हैं कि देशवासियों ने 26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान अंगीकृत व आत्मार्पित किया था। मुझे प्रसन्नता है कि भारत सरकार ने वर्ष 2015 से 26 नवंबर को प्रतिवर्ष संविधान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। हम सभी देशवासियों के लिए ‘संविधान दिवस’ का विशेष महत्व है। इसलिए, इस महत्वपूर्ण अवसर पर सम्मेलन के आयोजन के लिए, मैं Conference के अध्यक्ष एवं राज्य सभा के सभापति और उप-सभापति के साथ-साथ आप सभी पीठासीन अधिकारियों को बधाई देता हूं।
वर्ष 1925 में श्री विट्ठलभाई पटेल को केन्द्रीय विधान सभा का अध्यक्ष चुना गया। इस पद पर आसीन होने वाले वे प्रथम भारतीय थे। यह एक ऐतिहासिक अवसर था। श्री विट्ठलभाई पटेल गुजरात के प्रसिद्ध वकील, स्वतंत्रता सेनानी तथा सरदार वल्लभभाई पटेल के बड़े भाई थे। वे, गुजरात की माटी से उपजे राष्ट्र-निर्माताओं में से एक प्रमुख विभूति थे।
स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद, केन्द्रीय विधान सभा, ‘लोक सभा’ में परिवर्तित हो गई। यह एक सुखद संयोग है कि भारत की पहली लोकसभा के स्पीकर, श्री गणेश वासुदेव मावलंकर का जन्म, गुजरात में ही हुआ था। भारत की संसदीय प्रक्रिया की सफलता में, श्री मावलंकर के योगदान के लिए हम, श्रद्धा व आदर से उनका स्मरण करते हैं।
पहली लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में, मावलंकर जी ने देश के लोकाचार के अनुरूप, प्रक्रियाएं और परंपराएं निर्धारित कीं। वे स्वयं, सदन की मान-मर्यादाओं का पालन करते थे तथा दूसरों से भी, इनका दृढ़ता से अनुपालन करवाते थे।उनका मानना था कि संसद और राज्यों के विधानमंडल, जन-हित की सिद्धि के सर्वोच्च मंच हैं और सभी सदस्यों को, अपने राजनीतिक मतभेद भुलाते हुए, CONSENSUS से यानि आम सहमति से, जन-हित का उद्देश्य प्राप्त करना चाहिए। मावलंकर जी के शब्दों में कहें तो, [and I quote], "Each one of us has to remember that howsoever great the difference in viewpoints and methods, we are all meeting here as representatives of the nation for one common cause which, in the language of the Preamble to the Constitution, is to secure to all its citizens ‘justice’, ‘liberty’, ‘equality’ and ‘fraternity’. [unquote]
उपस्थित पीठासीन अधिकारीगण,
आज, जब विश्व के अनेक देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सवाल उठाए जाने लगे हैं, तब भारत की मिट्टी में, लोकतंत्र की प्राचीनजड़ें और मजबूत हो रही हैं।भारत में आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले से, ‘गण’ तथा‘संघ’ जैसे स्वतंत्र शब्द प्रयोग में रहे हैं।हमारे प्राचीन ग्रंथों में ‘गणतंत्र’ का उल्लेख, ‘जनतंत्र’ तथा ‘गणराज्य’ के आधुनिक संदर्भों में किया गया है। हमारे यहां वैशाली, कपिल वस्तु और मिथिला जैसे अनेक गणतंत्र अस्तित्व में थे। इस प्रकार भारत को वास्तव में ‘गणतंत्र की जननी’ कहा जा सकता है।
भारत में सदा ही अच्छे विचारों का स्वागत किया गया है। संविधान के निर्माण में भी, विश्व के संविधानों में उपलब्ध, उत्तम व्यवस्थाओं को अपनाया गया। असाधारण विवेक के धनी, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में, संविधान सभा ने बड़ी सूझबूझ के साथ, हमारे संविधान को अंतिम रूप दिया। हमारे देश की संसद और विधान सभाएं, हमारी संसदीय व्यवस्था का आधार हैं। उन पर, देशवासियों की नियति के निर्धारण का, महत्वपूर्ण दायित्व है। पिछले कुछ दशकों में, आम जन-मानस की आशाओं, आकांक्षाओं और जागरूकता में लगातार बढ़ोतरी हुई है। इसलिए संसद एवं विधानमंडलों की भूमिका व जिम्मेदारियां और भी बढ़ गई हैं।
जन-प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे, लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति सदैव निष्ठावान रहें। लोकतांत्रिक संस्थाओं और जन-प्रतिनिधियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती, जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की है। व्यापक पहुंच वाले मीडिया के इस युग में, संसद और कुछ विधान सभाओं की कार्यवाही का, सीधा प्रसारण किया जाता है। इससे सांसदों और विधायकों द्वारा की जाने वाली चर्चाओं और गतिविधियों की जानकारी, जनता के व्यापक वर्ग तक, तत्काल पहुंच जाती है। देश की जनता, अपने जन-प्रतिनिधियों के योगदान व प्रयासों को प्रत्यक्ष देखती है। इससे, जन-प्रतिनिधियों में अपनी भूमिका के प्रति सजगता बढ़ी है।
मुझे, 12 वर्ष तक राज्य सभा का सदस्य रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और संसदीय कार्यवाही में भाग लेने व उसे नज़दीक से देखने का सुअवसर मिला। मेरा मानना है किदेश की जनता, अपने जन-प्रतिनिधियों से, संसदीय मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा करती है। इसलिए, कभी-कभी जब जन-प्रतिनिधियों द्वारा संसद या विधान सभा में, अमर्यादित भाषा का प्रयोग या अमर्यादित आचरण किया जाता है, तो जनता को बहुत पीड़ा होती है। जन-कल्याण के व्यापक हित में, सामंजस्य और समन्वय का मार्ग अपनाया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में, ‘वाद’ को ‘विवाद’ न बनने देने के लिए ‘संवाद’ का माध्यम ही, सबसे अच्छा माध्यम होता है।
संसदीय लोकतंत्र में, सत्ता पक्ष के साथ-साथ प्रतिपक्ष की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए इन दोनों में सामंजस्य, सहयोग एवं सार्थक विचार-विमर्श आवश्यक है। पीठासीन अधिकारियों का यह दायित्व है कि वे, सदन में, जन-प्रतिनिधियों को स्वस्थ बहस के लिए, उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराएं और शिष्ट संवाद तथा चर्चा को प्रोत्साहित करें।
अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि होने के नाते, पीठासीन अधिकारी की जवाबदेही, क्षेत्र की जनता के प्रति भी होती है। सदन के अध्यक्ष का आसन, उनकी गरिमा और दायित्व - दोनों का प्रतीक होता है, जहां बैठकर वह, पूरी निष्पक्षता और न्याय-भावना से कार्य करते हैं।
निष्पक्षता और न्याय-भावना से काम करना, हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है। हमारी लोक-कथाओं में भी ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं। इस संदर्भ में, एक चरवाहे (Shepherd) बालक की कहानी याद आती है। उस कहानी में एक बालक, अपने साथियों के साथ, पशुओं को चराने के लिए जाता था। जब पशु इधर-उधर घास चरने लगते, तो सभी बालक आपस में मिलकर, खेल खेलने लगते। एक दिन, खेलते-खेलते वह बालक, एक चट्टान पर बैठ गया। चट्टान पर बैठते ही, बालक की भाव-भंगिमा बदल जाती थी और वह किसी न्याय-प्रिय राजा की तरह, बर्ताव करने लगता था। जब बच्चों का आपस में झगड़ा हो जाता और वे उसके पास समाधान के लिए जाते, तो वह, पूरी गंभीरता से, न्यायपूर्ण समाधान देता। लेकिन, चट्टान से हटते ही वह बालक, सामान्य बालकों जैसा व्यवहार करने लगता। उस बालक के व्यवहार की चर्चा, राजा तक पहुंच गई। उस स्थान पर खुदाई कराई गई। वहां सैकड़ों साल पुराना, एक सिंहासन निकला। कहते हैं कि वह सिंहासन, न्यायप्रिय सम्राट विक्रमादित्य का था। उस सिंहासन के प्रभाव से ही, उस बालक में न्याय-प्रियता और बुद्धिमत्ता आ जाती थी। अध्यक्षीय पीठ भी, इसी प्रकार से निष्पक्षता, समदर्शिता और न्यायप्रियता का आसन है और आप सभी पीठासीन अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि आपका व्यवहार भी, इन्हीं आदर्शों से प्रेरित होना चाहिए।
हमारी लोकसभा में अध्यक्षीय पीठ के पीछे, बौद्ध चिंतन की एक सूक्ति अंकित है। वहां लिखा है -‘धर्मचक्र-प्रवर्तनाय’। इसका संदेश यही है कि संसदीय प्रणाली के अंग के रूप में, हम सभी का लक्ष्य, धर्म यानि कि लोक-कल्याण के प्रति, अपने कर्तव्य की प्रक्रिया को, गतिमान रखने का होना चाहिए।
भारत की संसद ने, जन-भागीदारी को बढ़ावा देने के प्रयासों और स्वस्थ चर्चा को प्रोत्साहित करने वाले निकाय के रूप में, लोगों के हृदय में, विशेष स्थान बनाया है। इसी प्रकार, राज्यों की विधान सभाएं और विधान परिषदें भी, लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को मुखरित करने का, सशक्त माध्यम बनी हैं।
सभी पीठासीन अधिकारीगण,
लोकतांत्रिक व्यवस्था, जनता के कल्याण का, सर्वाधिक प्रभावी माध्यम सिद्ध हुई है। इसलिए, संसद एवं विधान मंडल का सदस्य होना, आप सभी के लिए गौरव की बात है। सभी सदस्यों को और पीठासीन अधिकारियों को, जनता की भलाई तथा देश की तरक्की के लिए, एक दूसरे की मर्यादा बनाए रखनी चाहिए। पीठासीन अधिकारियों की गरिमा का ध्यान रखने से, सांसदों और विधायकों का, अपना सम्मान भी बढ़ता है और लोगों के मन में, संसदीय लोकतंत्र के प्रति, आदर-भाव बना रहता है।
वर्ष 1949 में, संविधान सभा में, आज के ही दिन, संविधान के प्रमुख शिल्पी बाबा साहब डॉक्टर बी. आर. आंबेडकर ने कहा था कि संविधान की सफलता, भारत की जनता और राजनीतिक दलों के, आचरण पर निर्भर करेगी। अब यह हम सब पर निर्भर है कि अपने राष्ट्र-निर्माताओं के सपनों को पूरा करने के लिए भय, प्रलोभन, राग-द्वेष, पक्षपात और भेदभाव से मुक्त होकर, शुद्ध अंत:करण से कार्य करें।
भारत की शासन व्यवस्था के तीनों अंगों अर्थात –कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – द्वारा आपसी समन्वय और सामंजस्य से कार्य करने की परंपरा, अब सुदृढ़ हो चुकी है।मुझे बहुत प्रसन्नता है कि इस परंपरा को पुष्ट करने के लिए, सम्मेलन के दौरान ‘सशक्त लोकतंत्र हेतु विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का आदर्श समन्वय’ के विषय पर, विचार-विमर्श किया जाएगा। मुझे विश्वास है कि इन दो दिनों में आप सभी के विचार-मंथन से, जो निष्कर्ष प्राप्त होंगे, उनको अपनाने से, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को और भी मजबूती मिलेगी।
लोकतांत्रिक व्यवस्था, अंतत: लोक-कल्याण, विशेष रूप से ग़रीबों, पिछड़ों एवं वंचितों के उत्थान और देश की प्रगति के परम ध्येय से संचालित होती है। मेरा विश्वास है कि शासन के तीनों अंग मिलकर, इस ध्येय को प्राप्त करने की दिशा में कार्य करते रहेंगे। ऋग्वेद में कहा गया है-
संगच्छध्वं, संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्।
सभी साथ मिलकर चलें, मिल-जुलकर आपस में संवाद करें, और सबके मन भी मिले रहें।
मेरी शुभकामनाएं आप सबके साथ हैं।
धन्यवाद,
जय हिन्द!