'संविधान दिवस समारोह' के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का संबोधन
नई दिल्ली : 26.11.2019
1. संविधान दिवस समारोह के उद्घाटन हेतु आज यहां उपस्थित होना मेरे लिए सम्मान की बात है। मेरे लिए आज का दिन दोहरी प्रसन्नता लाया है क्योंकि आज उच्चतम न्यायालय में आने से पहले मैंने भारतीय संविधान को अंगीकार किये जाने की 70वीं जयंती के अवसर पर आयोजित संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया। हमारे गणतन्त्र के मंदिर समझे जाने वाले दोनों महत्वपूर्ण संस्थानों - संसद और उच्चतम न्यायालय- से सम्बद्ध रहने का दुर्लभ सौभाग्य मुझे प्राप्त है।
2. इस अवसर पर, अपने संविधान निर्माताओं का स्मरण करते हुए, मुझे विनम्रता का अनुभव हो रहा है। स्वतंत्रता और न्याय से आलोकित पथ को कभी न छोड़ने वाले उन महानुभावों ने ऐतिहासिक उथल-पुथल और चुनौतियों के बीच हमारी नियति को तय करने वाला यह दस्तावेज लिखना शुरू किया। उन्होंने संस्थाओं को जन्म दिया तथाउनके मूल उद्देश्यों की अक्षुण्णता को सुनिश्चित करने के लिए संस्थाओं के बीच समुचित संतुलन स्थापित किया। जीवंत संसदीय लोकतंत्र के साथ—साथ पूर्णतः स्वतंत्र न्यायपालिका का सह-अस्तित्व, उनकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का प्रमाण है।
3. इन मनीषियों ने तीन साल तक गहन विचार—विमर्श करने के बाद, संविधान में, हमारे गणतंत्र की महान परिकल्पना को शब्द बद्ध किया। संविधान सभा के सभी सदस्यों और पदाधिकारियों के प्रति राष्ट्रसदैव कृतज्ञ रहेगा, विशेष रूप से अध्यक्ष डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबासाहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के प्रति, जिन्हें संविधान का शिल्पी कहना सर्वथा उचित है। इतने बड़े कार्य को पूरा करने का उन सबका उत्साह और लगन, जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गजों के योगदान के समकक्ष था। उन्होंने आचार्य कृपलानी, एच.सी. मुखर्जी, गोपीनाथ बोरदोलोई और अमृतलाल ठक्कर के साथ कई समितियों और उप—समितियों की अध्यक्षता की थी।
4. मैं संविधान सभा की 15 महिला सदस्यों को विशेष रूप से श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूं। उनमें सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, हंसाबेन जीवराज मेहता, सुचेता कृपलानी और जी. दुर्गाबाई भी शामिल थीं जिन्होंने सबके लिए समान अधिकारों की बात उस दौर में की, जब दुनिया के कई भागों में महिलाएं मौलिक अधिकारों तक से वंचित थीं।
5. संविधान को अंगीकार किये जाने से पहले दिए गए अपने भाषण में, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने बिलकुल ठीक कहा था कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के सफल संचालन के लिए दूसरों के दृष्टिकोण का सम्मान करने की उदारता तथा मेल-जोल व सामंजस्य की क्षमता की जरूरत होती है। उन्होंने कहा था, ‘‘कई विषय जो संविधान में लिखे नहीं जा सकते, उनका निष्पादन परंपरा के अनुसार किया जाता है। मैं आशा करता हूं कि हम उस प्रकार की क्षमता प्रदर्शित करेंगे तथा वैसी परम्पराओं का विकास करेंगे।’’ सत्तर वर्ष के बाद, हमारे लिए यह विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि राष्ट्र ने उनकी आशाओं को काफी हद तक पूरा किया है।
6. जैसा कि राजेन्द्र बाबू,बाबासाहब और कई अन्य लोगों ने उस दिन ध्यान दिलाया था कि संविधान अंततः केवल एक दस्तावेज ही है जिसमें प्रेरणा स्पद विचार शब्दबद्ध किए गए हैं। यह तभी जीवंत स्वरूप प्राप्त करता है जब इसे राष्ट्र के जीवन में उतारा जाता है और इसके आदर्शों को व्यवहार रूप दिया जाता है। यह हमारे राष्ट्र का पवित्र ग्रंथ है जिसको संवेदनशीलता और बारीकी के साथ ही पढ़ा जाना चाहिए। संविधान ने यह कठिन कार्य न्यायपालिका को सौंपा। संविधान और इसके अंतर्गत बनाये गये कानूनों की अंतिम विवेचना के दायित्व का निर्वहन उच्चतम न्यायालय को सौंपे जाने के कारण न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की हो जाती है। न्यायपालिका बिना किसी अनुचित दबाव के कार्य कर सके, इसके लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे आवश्यक शक्ति और स्वतंत्रता उपलब्ध कराने पर विशेष ध्यान दिया। सात दशक से भी अधिक की इस घटनापूर्ण अवधि के दौरान हमारी न्यायपालिका, उसे सौंपे गये उच्चतम दायित्व के निर्वहन के प्रति सचेत रही है। मुझे इस तथ्य की जानकारी है कि न्यायपालिका ने देशवासियों के साथ जुड़ने के लिए कई अभिनव उपाय किये हैं।
7. लेकिन एक बहुत बड़े वर्ग के लिए, न्याय आज भी पहुंच से बाहर है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाते हुए मैं इस मुद्दे पर उनके विचारों का उल्लेख करना चाहता हूं। राष्ट्रपिता,न तो संविधान सभा के सदस्य थे और न ही हम इस बुनियादी दस्तावेज के बारे में उनके विचारों से अवगत हैं। लेकिन हम निश्चित तौर पर जानते हैं कि उन्होंने संविधान सभा के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उस ऐतिहासिक प्रयत्न के लिए अपना आशीर्वाद दिया। एक मायने में, हमारा संविधान स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित जीवन—मूल्यों की उपज है। इस तरह, यह उन लोकतांत्रिक आदर्शों का दर्पण है, जिन पर गांधीजी आजीवन चलते रहे। संविधान के विषय में गांधीजी के विचारों को जानने के लिए ‘गांधियन कांस्टीस्ट्यूशन फॉर फ्री इंडिया’ नामक पुस्तक ही सर्वोत्तम स्रोत है। गांधीजी के सिद्धांतों के बारे में लेखक की समझ पर आधारितयह पुस्तक, श्रीमन्नारायण अग्रवाल ने 1946 में लिखी थी। इस पुस्तक को स्वयं गांधीजी द्वारा पढ़े जाने और अनुमोदित होने का गौरव प्राप्त है भले ही, शब्द उनके नहीं हैं।
8. इस पुस्तक में भारत में ब्रिटिश न्यायिक प्रणाली की आलोचना की गयी है। इसमें कहा गया है कि प्राचीन काल की पंचायतों में ‘‘न्याय प्रक्रिया कम खर्चीली और निष्पक्ष थी। इसके विपरीत, आधुनिक न्यायालय बहुत खर्चीले हैं।साधारण मामलों को निपटाने में, अगर कई साल नहीं, तो महीनों लग ही जाते हैं।’’ यहां मैं यह संकेत करना चाहता हूं कि गांधीजी न्याय प्राप्त करने में आज होने वाले भारी खर्च को लेकर अप्रसन्न होते।
9. निस्संदेह, न्याय को सर्वसुलभ बनाने की बात संविधान में ही कही गयी है। अगर संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना पर ही विचार करें तो इसे समूचे दस्तावेज का ‘बीज पाठ’ कहा जा सकता है। ‘हम, भारत के लोग’, भारत को गणराज्य बनाने के लिए क्यों दृढ़संकल्प हुएॽ स्पष्ट रूप से इस संकल्प के पीछे ‘उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त कराने’ की भावना है। किसी भी धर्मग्रंथ की तरह संविधान की इस उदात्त घोषणा या महावाक्य का उद्देश्य न्याय के साथ-साथ स्वतंत्रता और समता को प्राप्त कराना तथा बंधुता को बढ़ाना है।
10. आज के इस अवसर पर हम न्याय को सर्वसुलभ बनाने के उपायों पर विचार करें। न्याय प्राप्त करने में अधिक खर्च होने की समस्या का एक समाधान है, निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराना। निःशुल्क कानूनी सहायता के विषय से मेरा भावनात्मक लगाव रहा है। आप में से बहुत से लोग जानते होंगे कि उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के दौरान मैं सामान्यतया समाज के कमजोर वर्गों को और विशेष रूप से महिलाओं तथा गरीब लोगों को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराता था। मैं वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक सेन का बड़ा आभारी हूं जिन्होंने मुझे राह दिखाई। अपने लंबे पेशेवर जीवन में अनेक भूमिकाओं को निभाते हुए, उनका एकमात्र उद्देश्य हर किसी को न्याय दिलाना था। मुझे आशा है कि कानून के पेशे से जुड़े अधिक से अधिक लोग श्री सेन के जीवन से प्रेरणा लेंगे और जरूरतमंद लोगों को अपने ज्ञान से उदारतापूर्वक लाभान्वित करेंगे। यहां मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि न्याय को सर्वसुलभ बनाने का कार्य, बेंच और बार से जुड़े सभी संबद्ध पक्षों के सामूहिक प्रयाससे ही संभव है।
11. न्याय तक पहुंच का सवाल केवल खर्च तक सीमित नहीं है। बहुत से लोगों के लिए, लंबे समय से, भाषा भी एक बाधा रही है। इस संबंध में, मुझे प्रसन्नता है कि उच्चतम न्यायालय ने मेरे सुझाव पर कार्रवाई की है तथा अपने निर्णयों को नौ क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराना प्रारंभ कर दिया है। आने वाले दिनों में, इस सूची में और भाषाओं को भी शामिल किया जा सकता है, ताकि सामान्य लोग भी देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को पढ़ सकें।
12. न्याय के मार्ग में एक अन्य बाधा विलंब की और परिणाम स्वरूप, मुकदमों के बैकलॉग की है। इस रुकावट को दूर करने के लिए विस्तृत विचार—विमर्श और व्यवस्थित प्रयासों की आवश्यकता है। मैं भी समझता हूं कि यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। सूचना और संचार टेक्नॉलॉजी से इस क्षेत्र में अत्यंत प्रभावशाली परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि प्रौद्योगिकीय नवाचारों की सहायता लेने की शुरुआत की जा चुकी है। इस संदर्भ में मेरे लिए यह जानकारी भी प्रसन्नता का विषय है कि आज ही तीन मोबाइल एप्लीकेशन लोकार्पित किए जा रहे हैं। पक्षकारों के लिए हितकारी इस पहल से जनसामान्य के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचना आसान हो जाएगा।
13. न्याय प्रदान करने में आने वाली बाधाओं का उल्लेख करते हुए मुझे डॉक्टर आंबेडकर के शब्दों का स्मरण हो रहा है। संविधान सभा के समक्ष अपने समापन भाषण में लोगों को प्रेरित करते हुए उन्होंने कहा था कि हमें अपने मार्ग में प्रस्तुत बुराइयों की पहचान करने में सुस्ती नहीं बरतनी चाहिए और उनके निराकरण की पहल करने में कमजोरी नहीं दिखानी चाहिए। उन्होंने कहा था, ‘‘देश की सेवा करने का यही एकमात्र मार्ग है। इससे बेहतर कोई रास्ता मैं नहीं जानता।’’
14. बाबासाहब के आह्वान के अनुरूप हमें संविधान के निर्माण, इसके प्रावधानों और समता के मौलिक सिद्धांत के बारे में जागरूकता के प्रसार के लिए भी प्रयास करने चाहिए। हमें, संविधान निर्माताओं की महान परिकल्पना के विषय में युवा पीढ़ी को विशेष रूप से अवगत कराना है। इस राष्ट्र की अखंड गाथा में हम दो पीढ़ियों के बीच मात्र एक कड़ी की तरह हैं। संविधान की विवेचना, निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और संविधान के आदर्शों को साकार करने के अभियान को आगे बढ़ाने का दायित्व राष्ट्र के युवाओं के कंधों पर होगा।
15. मैं आपके साथ कुछ बातें निजी तौर पर साझा करना चाहता हूं। जैसा मैंने पहले कहा था कि मैं संसद को संबोधित करने के बाद यहां आया हूं। आपके सम्मुख, यहां खड़े होकर, मुझे यह स्मरण हो रहा है कि 1993—94 में, यहां से वहां तक की यात्रा मैंने सम्पन्न की थी; यहां एक अधिवक्ता था, और वहां राज्य सभा का सदस्य बनकर गया। ऐसी यात्राओं से हमारे गणराज्य के कार्य-व्यवहार के बारे में मेरी समझबूझ व्यापक हुई है। हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा राज्य के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति के पृथक-करण के सिद्धांत को रेखांकित किया जाना सर्वथा उचित था। लेकिन यह जन-सेवा में अवरोध बनने वाला नहीं था। बल्कि इसका उद्देश्य, बेहतर जन-सेवा प्रदान करना था। अपनी जीवन—यात्रा के एक से अधिक पड़ावों से राष्ट्र के जीवन का सिंहावलोकन करने पर, संविधान निर्माताओं की परिकल्पना के विषय में, अब मेरी समझ बेहतर हुई है।
16. अपने विचार साझा करने के लिए यहां आमंत्रित किये जाने पर, मैं आपको धन्यवाद देता हूं। संविधान दिवस के अवसर पर पूरे राष्ट्र को मैं बधाई देता हूं तथा उत्सवों के लिए शुभकामना व्यक्त करता हूं।