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वशिष्ट भारतविद् पुरस्कार-2017 प्रदान किए जाने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का संबोधन

राष्ट्रपति भवन: 27.11.2017

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1. मैं, विशिष्ट भारतविद् पुरस्कार समारोह के अवसर पर आप सभी का हार्दिक स्वागत करता हूं। प्रख्यात विद्वानों और शख्सियतों की इस गरिमामय सभा को संबोधित करना वास्तव में मेरा सौभाग्य है।

2. कुछ शताब्दी पहले, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोग भारत के प्राचीन अतीत की गवेषणा के लिए एकजुट हुए। और इस प्रक्रिया से ‘भारतविद्या' अस्तित्व में आई। दुनियाभर के विद्वान भारतीय सभ्यता और इसकी प्राचीन विरासत को समझने के लिए इस शैक्षिक परंपरा का अध्ययन जारी रखे हुए हैं। विशिष्ट भारतविद् पुरस्कार, भारतीय चिंतन और अभिव्यक्ति के गंभीर तत्वों की खोज के लिए किए गए, अतीत और वर्तमान के सभी शोधपूर्ण कार्यों का उपयुक्त सम्मान है। इस पहल के लिए मैं भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् को बधाई देता हूं।

देवियो और सज्जनो,

3. मुझे जापान के प्रोफेसर हिरोशी मारुइ को तीसरा विशिष्ट भारतविद् पुरस्कार प्रदान करके प्रसन्नता हुई है। यह पुरस्कार मैंने यहां पीछे लगी प्रतिमा के माध्यम से प्राप्त भगवान बुद्ध के आशीर्वाद से प्रदान किया, जिससे यह और भी विशेष हो गया है। प्रोफेसर मारुइ ने भारतीय दर्शन और बौद्ध अध्ययन पर चालीस वर्ष से अधिक समय तक काम किया है। उनके अनेक प्रशंसा-प्राप्त प्रकाशनों और शोध-पत्रों को विश्वभर में अनेक संगत विषयों पर अंतिम प्रमाण माना जाता है। भारतीय और बौद्ध अध्ययन जापानी संघ के अध्यक्ष के तौर पर, उन्होंने जापान के युवाओं के बीच भारतविद्या के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त करने पर मैं उन्हें बधाई देता हूं और भारतविद्या में उनके असाधारण योगदान की सराहना करता हूं।

4. हमारे लिए यह संतोष का विषय है कि तीसरा विशिष्ट भारतविद् पुरस्कार एक ऐसे देश जापान के विद्वान को प्रदान किया गया है, जिसके साथ युगों-युगों से विचारों, कला, साहित्य और धार्मिक दर्शन का आदान-प्रदान होता रहा है। इससे दोनों देशों के लोगों के बीच गहरा आध्यात्मिक अपनत्व और सांस्कृतिक समझ पैदा हुई है।

5. हमें जापानी विद्वानों किबी- नो-माकिबी और कोबो दायशी जिन्हें भारतीय विद्वानों से संस्कृत की शिक्षा लेकर ‘कण’ अक्षर-माला विकसित करने का श्रेय जाता है, का ज्ञनदायक लेखा-जोखा मिला है। इस विकास के परिणामस्वरूप वे समानताएं विकसित हुई होंगी जिन्हें आज हम देवनागरी और जापानी वर्णमाला में देख पाते हैं। गौर करने लायक अन्य समानताएं भी हैं; जैसे कि जापानी भाषा में भी वाक्य का गठन संस्कृत के कर्ता, उसके बाद कर्म और फिर क्रिया के समान क्रम में रखे जाते हैं। इस सांस्कृतिक मेलजोल ने हमें भी प्रभावित किया है। ओकाकुरा तेनशिन और स्वामी विवेकानंद तथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के बीच पनपे सानिध्य से भारत-जापान सद्भाव में एक नया अध्याय शुरू हुआ। अपने पारंपरिक जीवन मूल्यों को कायम रखते हुए आधुनिकीकरण में जापान की सफलता ने दोनों को गहराई तक प्रभावित किया है।

6. आज, भारत-जापान रिश्तों ने एक खास दर्जा हासिल कर लिया है। इसलिए, प्रोफसर हिरोशी मारुइ की भारतविद्या तथा उनकी कृतियां और अधिक सार्थक हो गई हैं।

देवियो और सज्जनो,

7. भारतविद्या में भारत का, इसकी बहुआयामी और प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता का अध्ययन किया जाता है। यह कौतूहल का विषय है कि किस प्रकार 17वीं और 18वीं शताब्दी में समय की परस्पर विपरीत धाराओं के वाह में संस्कृत और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के प्रति पश्चिमी विद्वानों में गहरी रुचि जगी। यूरोप के विश्वविद्यालयों और भारत के प्राच्य-वेत्ताओं ने उपनिषदों के विचारों में शांति तलाशी और शाकुंतलम् के साहित्यिक परिष्करण की सराहना की। मूनियर विलियम्स और अन्य विद्वानों ने रामायण और महाभारत में भारतीय मानस और लोकाचार की बानगी के दर्शन किए। महान भारतविद् मैक्स मूलर का कहना था ‘‘यदि मुझसे पूछा जाए कि किस आकाश के तले मानव मस्तिष्क ने अपनी कुछ सर्वाधिक पसंदीदा प्रतिभाओं को पूर्णत: विकसित किया है, जीवन की भीषणतम समस्याओं पर सर्वाधिक गंभीरता से चिंतन किया है और उनमें से कुछ के ऐसे समाधान प्राप्त कर लिए हैं जो प्लेटो और कांट का अध्ययन करने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित करने योग्य हैं, तो मैं भारत की ओर इशारा करूंगा।’’

8. स्वामी विवेकानंदजैसे आध्यात्मिक नेताओं से लेकर राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने भारतविदों की कृतियों का गहराई से अध्ययन किया और भारतीयों को उनकी प्राचीन विरासत का स्मरण करवाया। भारतविद्, भारत में एक नई चेतना लेकर आए जिसने आत्म-गौरव जगाया। वे भारत और पश्चिमी जगत के बीच एक सेतु बन गए। इससे बहुत से भारतीय विद्वान भारतविद्या का अध्ययन करने के लिए भी प्रोत्साहित हुए।

9. भारतीय संस्कृति और इसकी बहुत सी विशेषताएं, सदियों की समयावधि में विकसित हुई हैं। इतने प्राचीन कालक्रम से इसे एक विशेष शक्ति और स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह स्वरूप अपने आप में अभिन्न और साकल्यवादी, संश्लिष्ट और उदार है। इसीलिए यह संस्कृति, काल के आघात में कायम रह सकी और अंतरिक्ष की सीमाओं से परे जा सकी। भारतीयता का निरुपण समावेशी बहुलवाद के द्वारा किया जा सकता है; भारतीयता, ‘धर्मो रक्षित रक्षित:’ के सिद्धांत में रची बसी है, जिसका अर्थ है: धर्म की या सदाचारी की रक्षा करने पर वह बिना किसी अपवाद के सभी की रक्षा करता है।

देवियो और सज्जनो,

10. आज हम एक विश्व समुदाय के रूप में रहते हैं। ऐसे में, परस्पर सद्भावना की बहुत जरूरत है। नए विचार हमारे दैनिक जीवन को नई-नई दिशा दे रहे हैं। लोग और नीति निर्माता रहन-सहन को और अधिक सतत बनाने के ऐसे विकल्प खोज रहे हैं जहां हम अपने आस-पास की प्रकृति और पारिस्थितकी के साथ सहजीवी संबंध बनाकर रह सकें। हम अपनी सर्वोत्तम उपलब्धियों को मानवमात्र के साथ साझा करने के लिए अपने पारंपरिक ज्ञान और प्राचीन प्रज्ञा पर शोध कर रहे हैं। भारत, मानव कल्याण के लिए योग और आयुर्वेद की विशेषताओं के प्रचार-प्रसार का भरपूर प्रयास कर रहा है। इसी प्रकार, अन्य राष्ट्र, और समाज अपनी पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में भारतविद्या लोगों के बीच और अधिक दायित्व ग्रहण को बढ़ावा देने और भारत के पास जो कुछ भी है, उसे मानवता के साथ साझा करने के मामले में और महत्वपूर्ण हो गई है।

11. पीढ़ियों से भारतविदों ने भारत के इतिहास और सभ्यता को गहराई से समझने में मदद की है। हम भारतविद्या में योगदान के लिए प्रोफेसर हिरोशी मारुइ के सचमुच आभारी हैं। मुझे विश्वास है कि ऐसे प्रयासों से न केवल प्राचीन भारतविद्या के अध्ययन और शोध में बल्कि सभी आयामों में भारत के अध्ययन में और ज्यादा रुचि पैदा होगी।

12. इन्हीं शब्दों के साथ, मैं एक बार फिर प्रोफेसर हिरोशी मारुइ को बधाई देता हूं। मैं उनके भावी प्रयासों की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं।

ओरिगातो, प्रोफेसर मारुइ।


धन्यवाद ।

जय हिन्द।